Sarvanam in Hindi सर्वनाम – सर्वनाम के भेद (Bhed), परिभाषा, उदाहरण

sarvanam in hindi

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Sarvanam in Hindi Examples – सर्वनाम Sarvanam (Pronoun) in Hindi Grammar

सर्वनाम संज्ञा के स्थान पर जिन शब्दों का प्रयोग किया जाता है, उन्हें ‘सर्वनाम’ कहते हैं। “राजीव देर से घर पहुंचा, क्योंकि उसकी ट्रेन देर से चली थी।” इस वाक्य में ‘उसकी’ का प्रयोग ‘राजीव’ के लिए हुआ है, अतः ‘उसकी’ शब्द सर्वनाम कहा जाएगा। हिन्दी में सर्वनामों की संख्या 11 हैं, जो निम्न हैं-

मैं, तू, आप, यह, वह, जो, सो, कोई, कुछ, कौन, क्या।

सर्वनाम के भेद व्यावहारिक आधार पर सर्वनाम के निम्नलिखित छ: भेद हैं-

परिभाषा प्रकार प्रयोग अभ्यास सर्वनाम संज्ञाओं की पुनरावृत्ति को रोककर वाक्यों को सौंदर्ययुक्त बनाता है। नीचे लिखे वाक्यों को ध्यानपूर्वक देखें

  1. पेड़-पौधे प्रकाश-संश्लेषण की क्रिया के दरम्यान ऑक्सीजन मुक्त करते हैं।
  2. पेड़-पौधे पर्यावरण को संतुलित बनाए रखते हैं।
  3. पेड़-पौधे विभिन्न जीवों को आश्रय प्रदान करते हैं।
  4. पेड़-पौधे भू-क्षरण को रोकते हैं।
  5. पेड़-पौधों से हमें फल-फूल, दवाएँ, इमारती लकड़ियाँ आदि मिलते हैं।

अब इन वाक्यों पर गौर करें-

  1. पेड़-पौधे प्रकाश-संश्लेषण की क्रिया के दरम्यान ऑक्सीजन मुक्त करते हैं।
  2. वे पर्यावरण को संतुलित बनाए रखते हैं।
  3. वे विभिन्न जीवों को आश्रय प्रदान करते हैं।
  4. वे भू-क्षरण को रोकते हैं।
  5. उनसे हमें फल-फूल, दवाएँ, इमारती लकड़ियाँ आदि मिलते हैं।

आपने क्या देखा? प्रथम पाँचों वाक्यों में संज्ञा ‘पेड़-पौधे’ दुहराए जाने के कारण वाक्य भद्दे हो गए जबकि नीचे के पाँचों वाक्य सुन्दर हैं। आपने यह भी देखा कि ‘वे’ और ‘उनसे’ पद ‘पेड़-पौधे’ की ओर संकेत करते हैं।

अतएव, सर्वनाम वैसे शब्द हैं, जो संज्ञा के स्थान पर प्रयुक्त होते हैं।
‘उक्त वाक्यों में ‘वे’ और ‘उनसे’ सर्वनाम हैं।
मूलतः सर्वनामों की संख्या ग्यारह है
मै, तू, आप, यह, वह, जो, सो, कौन, क्या, कोई और कुछ ये सभी मौलिक सर्वनाम कहलाते हैं। जब इन पर कारक-चिह्नों का प्रभाव पड़ता है, तब ये यौगिक रूप बन जाते हैं।

जैसे-
मौलिक सर्वनाम मैं

यौगिक सर्वनाम मैंने, मुझे, मुझको, हमें, हम, हमको, मेरा, मेरे, मेरी, मुझमें, मेरे लिए इत्यादि।
नोट : सर्वनाम के यौगिक रूपों की चर्चा कारक-प्रकरण में हो चुकी है।

नीचे लिखे वाक्यों के खाली स्थानों में कोष्ठक में दिए गए सर्वनामों के यौगिक रूपों को भरें
1. …… लड़के का व्यवहार बहुत अच्छा नहीं है। (वह)
2. क्या मैं …….. नाम और पता जान सकता हूँ? (आप)
3. ………. आपका नमक खाया है, गद्दारी कैसे करूँगा। (मैं)
4. लगता है कि वह स्टेशन पर ही ठहर गया है। (मैं)
5. …………… इन्तजार नहीं करना पड़ेगा; बस, मैं गया और आया। (आप)
6. वही …….. बहका रहा होगा। (तुम)
7. इस संकट की घड़ी में ……. साथ होना चाहिए। (मैं वह)
8. परीक्षा से पहले ……… ठीक से तैयारी कर लेनी चाहिए। (तुम)
9. ……. वकील का क्या कहना है? (तुम)
10. ……… ऐसा लगता है कि …… लोगों के लिए अभी भी दिल्ली दूर है। (मैं वह)
11. जोश की बात सुनते ही …….. भुजा फड़कनेलगी। (वह)
12. ……. कह देना कि अब ……. ताऊ नहीं रहे। (वह)
13. आज में ……… घर ही खाऊँगा। (आप)
14. ……… पत्रिका के सभी स्तंभ आकर्षक हैं। (आप)
15. मुझे ……. इरादे ठीक नहीं लग रहे हैं (वह)

सर्वनाम के भेद – Sarvanam Ke Bhed In Hindi

सर्वनाम छह प्रकार के होते हैं-

  1. पुरुषवाचक सर्वनाम
  2. निजवाचक सर्वनाम
  3. निश्चयवाचक सर्वनाम
  4. अनिश्चयवाचक सर्वनाम
  5. प्रश्नवाचक सर्वनाम
  6. संबंधवाचक सर्वनाम

1. पुरुषवाचक सर्वनाम

“जिस सर्वनाम का प्रयोग स्त्री एवं पुरुष दोनों के लिए किया जाता है, ‘पुरुषवाचक सर्वनाम’ (Personal Pronoun) कहलाता है।”

सर्वनाम का अपना कोई लिंग नहीं होता है। इसके लिंग का निर्धारण क्रियापद से ही होता है। पुरुषवाचक सर्वनाम के अंतर्गत मैं, तू, आप, यह और वह आते हैं।

नीचे लिखे उदाहरणों को देखें-
मैं फिल्म देखना चाहता हूँ। (पुं०)
मैं घर जाना चाहती हूँ। (स्त्री०)
तू कहता है तो ठीक ही होगा। (पुं०)
तू जब तक आई तब तक वह चला गया। (स्त्री०)
आजकल आप कहाँ रहते हैं? (पुं०)
आप जहाँ भी रहती हैं खुशियों का माहौल रहता है। (स्त्री०)

पुरुषवाचक सर्वनामों की तीन स्थितियाँ (भेद) होती हैं-

1. उत्तमपुरुष: जिस सर्वनाम का प्रयोग बात कहनेवाले के लिए हो।

जैसे-
मैं कहता हूँ कि नदियाँ सूखती जा रही हैं।
इसके अंतर्गत ‘मैं’ और ‘हम’ आते हैं।

2. मध्यम पुरुष : जिस सर्वनाम का प्रयोग उसके लिए हो, जिससे कोई बात कही जाती है। इसके अन्तर्गत तू, तुम और आप आते हैं।

जैसे-
मैंने आपसे कहा था कि वह बीमार नहीं है।

3. अन्यपुरुष : जिस सर्वनाम का प्रयोग उसके लिए हो जिसके विषय में कुछ कहा जाता है।

जैसे-
मैंने आपको बताया था कि वह पढ़ने में बहुत तेज है।
उत्तम पु० मध्यम पु०। अन्य पु०

पुरुषवाचक सर्वनामों के संज्ञा की तरह दो वचन होते हैं। नीचे दी गई तालिका को देखें
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2. निजवाचक सर्वनाम

“जिस सर्वनाम का प्रयोग कर्ता कारक स्वयं के लिए करता है, उसे ‘निजवाचक सर्वनाम’ (Reflexive Pronoun) कहते हैं।’ इसके अंतर्गत आप, स्वयं, खुद, स्वतः आदि आते हैं?

नीचे लिखे उदाहरणों को देखें-
आप कहाँ से आ रहे हैं?

विश्लेषण : इस वाक्य में ‘आप’ का प्रयोग किसी पुरुष के लिए होने के कारण यह पुरुषवाचक के अंतर्गत है।

मैं आप चला जाऊँगा। विश्लेषण : यहाँ ‘मैं’ कर्ता ने ‘आप’ का प्रयोग स्वयं के लिए किया है। इस कारण यह निजवाचक के अंतर्गत आएगा।

3. निश्चयवाचक सर्वनाम

“जिस सर्वनाम से किसी वस्तु या व्यक्ति अथवा पदार्थ के विषय में ठीक-ठीक और निश्चित ज्ञान हो, ‘निश्चयवाचक सर्वनाम’ (Demonstrative Pronoun) कहलाता है।’

इस सर्वनाम के अन्तर्गत ‘यह’ और ‘वह’ आते हैं। ‘यह’ निकट के लिए और ‘वह’ दूर। के लिए प्रयुक्त होते हैं।

नोट : ‘यह’ और ‘वह’ पुरुषवाचक सर्वनाम भी हैं और निश्चयवाचक भी। नीचे दिए गए। उदाहरणों और विश्लेषणों को देखें :

आजकल यह कुछ नहीं खाता-पीता है।
वह एकबार फिर दौड़-प्रतियोगिता में दूसरे स्थान पर रहा।

विश्लेषण : उक्त दोनों वाक्यों में ‘यह’ और ‘वह’ का प्रयोग पुरुषों के लिए होने के कारण दोनों पुरुषवाचक के अंतर्गत आएँगे।

यह गाय है। वह बिलायती चूहा है। विश्लेषण : उपर्युक्त दोनों वाक्यों में ‘यह’ गाय की निश्चितता के लिए और ‘वह’ चूहे की निश्चितता के लिए प्रयुक्त होने के कारण दोनों निश्चयवाचक सर्वनाम के अंतर्गत आएँगे।

4. अनिश्चयवाचक सर्वनाम

“वह सर्वनाम, जो किसी निश्चित वस्तु या व्यक्ति का बोध नहीं कराए, ‘अश्चियवाचक सर्वनाम’ (Indefinite Pronoun) कहलाता है।”

इस सर्वनाम के अंतर्गत ‘कोई’ और ‘कुछ’ आते हैं। जैसे-

आपके घर पर कोई आया है। कुछ दे दीजिए। कुछ काम करो।

5. प्रश्नवाचक सर्वनाम

“जिस सर्वनाम का प्रयोग प्रश्न करने के लिए किया जाय, ‘प्रश्नवाचक सर्वनाम’ (Interrogative Pronoun) कहलाता है।”

इसके अंतर्गत ‘कौन’ और ‘क्या’—ये दो सर्वनाम आते हैं। ‘कौन’ का प्रयोग सदैव सजीवों के लिए और ‘क्या’ का प्रयोग निर्जीवों के लिए होता है।
जैसे-
देखो तो कौन आया है?
आपने क्या खाया है?

6. संबंधवाचक सर्वनाम

“जिस सर्वनाम से एक शब्द या वाक्य का दूसरे शब्द या वाक्य से संबंध जाना जाता है, उसे ‘सबंधवाचक सर्वनाम’ (Relative Pronoun) कहते हैं।”

इसके अंतर्गत ‘जो’ और ‘सो’ आते हैं। अब ‘सो’ के स्थान पर ‘वह’ का प्रयोग होने लगा है। नीचे लिखे वाक्यों को देखें-

जो जागेगा सो पावेगा, जो सोवेगा सो खोवेगा (पु० हिन्दी) जो जागेगा वह पाएगा, जो सोएगा वह खोएगा। (आ० हि.) जो के अन्य रूप भी होते हैं।
जैसे-
जिसका, जो कि, जिसको, जिन्होंने, जिनके आदि।

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1. इनमें से किस वाक्य में निजवाचक सर्वनाम का प्रयोग हुआ है?
(a) वह आप खा लेता है।
(b) आप क्या-क्या खाते हैं?
(c) आजकल आप कहाँ रहते हैं?
(d) इनमें से कोई नहीं
उत्तर :
(a) वह आप खा लेता है।

2. किस वाक्य में प्रश्नवाचक सर्वनाम का प्रयोग हुआ है?
(a) आपको यह काम करना है।
(b) वह पढ़ता-लिखता है न?
(c) आप कहाँ रहते हैं?
(d) वहाँ कौन पढ़ रहा था?
उत्तर :
(d) वहाँ कौन पढ़ रहा था?

3. अनिश्चयवाचक सर्वनाम का प्रयोग किस वाक्य में हुआ है?
(a) उन्हें कुछ दे दो।
(b) कौन ऐसा कहता है?
(c) अभिनव इधर आया था।
(d) वह खाकर सो गया है।
उत्तर :
(a) उन्हें कुछ दे दो।

4. संबंधवाचक सर्वनाम का प्रयोग किस वाक्य में हुआ है?
(a) जो करेगा सो भरेगा।
(b) जैसी करनी वैसी भरनी।
(c) उसके पास कुछ है।
(d) वह इधर ही आ निकला।
उत्तर :
(a) जो करेगा सो भरेगा।

5. मैं आप चला जाऊँगा। इस वाक्य में ‘आप’ कौन-सा सर्वनाम है?
(a) पुरुषवाचक सर्वनाम
(b) निश्चयवाचक सर्वनाम
(c) निजवाचक सर्वनाम
(d) संबंधवाचक सर्वनाम
उत्तर :
(c) निजवाचक सर्वनाम

6. आप कहाँ जा रहे थे? इस वाक्य में ‘आप’ क्या है?
(a) निजवाचक सर्वनाम
(b) निश्चयवाचक सर्वनाम
(c) प्रश्नवाचक सर्वनाम
(d) पुरुषवाचक सर्वनाम
उत्तर :
(d) पुरुषवाचक सर्वनाम

7. इन वाक्यों में से किस वाक्य में ‘वह’ का प्रयोग संबंधवाचक के रूप में हुआ है?
(a) वह घर पर रहकर ही अपना परिवार चला रहा है।
(b) वह घोड़ा है, जो बहुत तेज दौड़ता है।
(c) वह पता नहीं क्या चाहता है।
(d) जो मेहनत करेगा वह सफल होगा।
उत्तर :
(d) जो मेहनत करेगा वह सफल होगा।

8. सर्वनामों की कुल संख्या है-
(a) आठ
(b) दस
(c) ग्यारह
(d) बारह
उत्तर :
(c) ग्यारह

9. कौन-सा कथन सत्य है
(a) सर्वनाम संज्ञा की पुनरावृत्ति को रोकता है।
(b) सर्वनाम संज्ञा की तरह प्रयुक्त होता है।
(c) सर्वनाम का भी अपना लिंग-वचन होता है।
(d) सर्वनाम के बिना भी वाक्य सुन्दर हो सकते हैं।
उत्तर :
(a) सर्वनाम संज्ञा की पुनरावृत्ति को रोकता है।

10. पुरुषवाचक सर्वनाम के कितने प्रकार होते हैं?
(a) चार
(b) पाँच
(c) आठ
(d) तीन
उत्तर :
(d) तीन

Sandhi in Hindi | संधि की परिभाषा, भेद और उदाहरण – हिन्दी व्याकरण

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Sandhi in Hindi(संधि इन हिंदी) | Sandhi ki Paribhasha, Prakar Bhed, Udaharan (Examples) – Hindi Grammar

सन्धि – दो वर्णों या ध्वनियों के संयोग से होने वाले विकार (परिवर्तन) को सन्धि कहते हैं। सन्धि करते समय कभी–कभी एक अक्षर में, कभी–कभी दोनों अक्षरों में परिवर्तन होता है और कभी–कभी दोनों अक्षरों के स्थान पर एक तीसरा अक्षर बन जाता है। इस सन्धि पद्धति द्वारा भी शब्द–रचना होती है;

जैसे-

  • सुर + इन्द्र = सुरेन्द्र,
  • विद्या + आलय = विद्यालय,
  • सत् + आनन्द = सदानन्द।

इन शब्द खण्डों में प्रथम खण्ड का अन्त्याक्षर और दूसरे खण्ड का प्रथमाक्षर मिलकर एक भिन्न वर्ण बन गया है, इस प्रकार के मेल को सन्धि कहते हैं।

संधि हिंदी

संधि में विषय :

  • संधि उदाहरण (Sandhi udaharan)
  • संधि व्याकरण (Sandhi vyakaran)
  • व्यंजन संधि (Vyanjan Sandhi)
  • दीर्घ संधि उदाहरण (Deergh Sandhi Udaharan)
  • संधि विक्षेद (Sandhi Vikshed)
  • संधि संस्कृत में (Sandhi Sanskrut Mein)
  • संस्कृत संधि सूत्र (Sanskrt Sandhi Sootr)
  • विसर्ग संधि उदाहरण (Visarg Sandhi Udaaharan)
  • अयादि संधि के उदाहरण (Ayadi Sandhi Ke Udaaharan)
  • संधि विच्छेद (Sandhi Vichched)

सन्धियाँ तीन प्रकार की होती हैं

  1. स्वर सन्धि
  2. व्यंजन सन्धि
  3. विसर्ग सन्धि

1. स्वर सन्धि

स्वर के साथ स्वर का मेल होने पर जो विकार होता है, उसे स्वर सन्धि कहते हैं। स्वर सन्धि के पाँच भेद हैं-
(i) दीर्घ सन्धि सवर्ण ह्रस्व या दीर्घ स्वरों के मिलने से उनके स्थान में सवर्ण दीर्घ स्वर हो जाता है। वर्गों का संयोग चाहे ह्रस्व + ह्रस्व हो या ह्रस्व + दीर्घ और चाहे दीर्घ + दीर्घ हो, यदि सवर्ण स्वर है तो दीर्घ हो जाएगा। इस सन्धि को दीर्घ सन्धि कहते हैं; जैसे

सन्धि – उदाहरण

  • अ + अ = आ – पुष्प + अवली = पुष्पावली
  • अ + आ = आ – हिम + आलय = हिमालय
  • आ + अ = आ – माया + अधीन = मायाधीन
  • आ + आ = आ – विद्या + आलय = विद्यालय
  • इ + इ = ई – कवि + इच्छा = कवीच्छा
  • इ + ई = ई – हरी + ईश = हरीश
  • इ + इ = ई – मही + इन्द्र = महीन्द्र
  • इ + ई = ई – नदी + ईश = नदीश
  • उ + उ = ऊ – सु + उक्ति = सूक्ति
  • उ + ऊ = ऊ – सिन्धु + ऊर्मि = सिन्धूमि
  • ऊ + उ = ऊ – वधू + उत्सव = वधूत्सव
  • ऊ + ऊ = ऊ – भू + ऊर्ध्व = भूल
  • ऋ+ ऋ = ऋ – मात + ऋण = मातण

गुण सन्धि

जब अ अथवा आ के आगे ‘इ’ अथवा ‘ई’ आता है तो इनके स्थान पर ए हो जाता है। इसी प्रकार अ या आ के आगे उ या ऊ आता है तो ओ हो जाता है तथा अ या आ के आगे ऋ आने पर अर् हो जाता है। दूसरे शब्दों में, हम इस प्रकार कह सकते हैं कि जब अ, आ के आगे इ, ई या ‘उ’, ‘ऊ’ तथा ‘ऋ’ हो तो क्रमश: ए, ओ और अर् हो जाता है, इसे गुण सन्धि कहते हैं;

जैसे-

  • अ, आ + ई, ई = ए
  • अ, आ + उ, ऊ = ओ
  • अ, आ + ऋ = अर्

सन्धि – उदाहरण

  • अ + इ = ए – उप + इन्द्र = उपेन्द्र
  • अ + ई = ए – गण + ईश = गणेश
  • आ + इ = ए – महा + इन्द्र = महेन्द्र
  • आ + ई = ए – रमा + ईश = रमेश
  • अ + उ = ओ – चन्द्र + उदय = चन्द्रोदय
  • अ + ऊ = ओ – समुद्र + ऊर्मि = समुद्रोर्मि
  • आ + उ = ओ – महा + उत्सव = महोत्सव
  • आ + ऊ = ओ – गंगा + उर्मि = गंगोर्मि
  • अ + ऋ = अर् – देव + ऋषि = देवर्षि
  • आ + ऋ = अर – महा + ऋषि = महर्षि

वृद्धि सन्धि

जब अ या आ के आगे ‘ए’ या ‘ऐ’ आता है तो दोनों का ऐ हो जाता है। इसी प्रकार अ या आ के आगे ‘ओ’ या ‘औ’ आता है तो दोनों का औ हो जाता है, इसे वृद्धि सन्धि कहते हैं;

जैसे-
सन्धि – उदाहरण

  • अ + ए = ऐ – पुत्र + एषणा = पुत्रैषणा
  • अ + ऐ = ऐ – मत + ऐक्य = मतैक्य
  • आ + ए = ऐ – सदा + एव = सदैव
  • आ + ऐ = ऐ – महा + ऐश्वर्य = महैश्वर्य
  • अ + ओ = औ – जल + ओकस = जलौकस
  • अ + औ = औ – परम + औषध = परमौषध
  • आ + ओ = औ – महा + ओषधि = महौषधि
  • आ + औ = औ – महा + औदार्य = महौदार्य

यण सन्धि

जब इ, ई, उ, ऊ, ऋ के आगे कोई भिन्न स्वर आता है तो ये क्रमश: य, व, र, ल् में परिवर्तित हो जाते हैं, इस परिवर्तन को यण सन्धि कहते हैं;

जैसे-

  • इ, ई + भिन्न स्वर = व
  • उ, ऊ + भिन्न स्वर = व
  • ऋ + भिन्न स्वर = र

सन्धि – उदाहरण

  • इ + अ = य् – अति + अल्प = अत्यल्प
  • ई + अ = य् – देवी + अर्पण = देव्यर्पण
  • उ + अ = व् – सु + आगत = स्वागत
  • ऊ + आ = व – वधू + आगमन = वध्वागमन
  • ऋ + अ = र् – पितृ + आज्ञा = पित्राज्ञा

(v) अयादि सन्धि जब ए, ऐ, ओ और औ के बाद कोई भिन्न स्वर आता है तो ‘ए’ का अय, ‘ऐ’ का आय् , ‘ओ’ का अव् और ‘औ’ का आव् हो जाता है;

जैसे-

  • ए + भिन्न स्वर = अय्
  • ऐ + भिन्न स्वर = आय्
  • ओ + भिन्न स्वर = अव्
  • औ + भिन्न स्वर = आव्

सन्धि – उदाहरण

  • ए + अ = अय् – ने + अयन = नयन
  • ऐ + अ = आय् – नै + अक = नायक
  • ओ + अ = अव् – पो + अन = पवन
  • औ + अ = आव् – पौ + अक = पावक

2. व्यंजन सन्धि

व्यंजन के साथ व्यंजन या स्वर का मेल होने से जो विकार होता है, उसे व्यंजन सन्धि कहते हैं। व्यंजन सन्धि के प्रमुख नियम इस प्रकार हैं (क) यदि स्पर्श व्यंजनों के प्रथम अक्षर अर्थात् क्, च्, ट्, त्, के आगे कोई स्वर अथवा किसी वर्ग का तीसरा या चौथा वर्ण अथवा य, र, ल, व आए तो क.च.ट. त. पके स्थान पर उसी वर्ग का तीसरा अक्षर अर्थात क के स्थान पर ग, च के स्थान पर ज, ट के स्थान पर ड, त के स्थान पर द और प के स्थान पर ‘ब’ हो जाता है;

जैसे-

  • दिक् + अम्बर = दिगम्बर
  • वाक् + ईश = वागीश
  • अच् + अन्त = अजन्त
  • षट् + आनन = षडानन
  • सत् + आचार = सदाचार
  • सुप् + सन्त = सुबन्त
  • उत् + घाटन = उद्घाटन
  • तत् + रूप = तद्रूप

(ख) यदि स्पर्श व्यंजनों के प्रथम अक्षर अर्थात् क्, च्, ट्, त्, प् के आगे कोई अनुनासिक व्यंजन आए तो उसके स्थान पर उसी वर्ग का पाँचवाँ अक्षर हो जाता है;

जैसे-

  • वाक् + मय = वाङ्मय
  • षट् + मास = षण्मास
  • उत् + मत्त = उन्मत्त
  • अप् + मय = अम्मय

(ग) जब किसी ह्रस्व या दीर्घ स्वर के आगे छ आता है तो छ के पहले च बढ़ जाता है;

जैसे-

  • परि + छेद = परिच्छेद
  • आ + छादन = आच्छादन
  • लक्ष्मी + छाया = लक्ष्मीच्छाया
  • पद + छेद = पदच्छेद
  • गृह + छिद्र = गृहच्छिद्र

(घ) यदि म् के आगे कोई स्पर्श व्यंजन आए तो म् के स्थान पर उसी वर्ग का पाँचवाँ वर्ण हो जाता है;

जैसे-

  • शम् + कर = शङ्कर या शंकर
  • सम् + चय = संचय
  • घम् + टा = घण्टा
  • सम् + तोष = सन्तोष
  • स्वयम् + भू = स्वयंभू

(ङ) यदि म के आगे कोई अन्तस्थ या ऊष्म व्यंजन आए अर्थात् य, र, ल, व्, श्, ष्, स्, ह आए तो म अनुस्वार में बदल जाता है;

जैसे-

  • सम् + सार = संसार
  • सम् + योग = संयोग
  • स्वयम् + वर = स्वयंवर
  • सम् + रक्षा = संरक्षा

(च) यदि त् और द् के आगे ज् या झ् आए तो ‘ज्’, ‘झ’, ‘ज’ में बदल जाते हैं;

जैसे-

  • उत् + ज्वल = उज्ज्वल
  • विपद् + जाल = विपज्जाल
  • सत् + जन = सज्जन
  • सत् + जाति = सज्जाति

(छ) यदि त्, द् के आगे श् आए तो त्, द् का च और श् का छ हो जाता है। यदि त्, द् के आगे ह आए तो त् का द् और ह का ध हो जाता है;

जैसे-

  • सत् + चित = सच्चित
  • तत् + शरीर = तच्छरीर
  • उत् + हार = उद्धार
  • तत् + हित = तद्धित

(ज) यदि च् या ज् के बाद न् आए तो न् के स्थान पर या याञ्जा हो जाता है;

जैसे-

  • यज् + न = यज्ञ
  • याच् + न = याजा

(झ) यदि अ, आ को छोड़कर किसी भी स्वर के आगे स् आता है तो बहुधा स् के स्थान पर ष् हो जाता है;

जैसे-

  1. अभि + सेक = अभिषेक
  2. वि + सम = विषम
  3. नि + सेध = निषेध
  4. सु + सुप्त = सुषुप्त

(ब) ष् के पश्चात् त या थ आने पर उसके स्थान पर क्रमश: ट और ठ हो जाता है;

जैसे-

  • आकृष् + त = आकृष्ट
  • तुष् + त = तुष्ट
  • पृष् + थ = पृष्ठ
  • षष् + थ = षष्ठ

(ट) ऋ, र, ष के बाद ‘न’ आए और इनके मध्य में कोई स्वर क वर्ग, प वर्ग, अनुस्वार य, व, ह में से कोई वर्ण आए तो ‘न’ = ‘ण’ हो जाता है;

जैसे-

  • भर + अन = भरण
  • भूष + अन = भूषण
  • राम + अयन = रामायण
  • परि + मान = परिमाण
  • ऋ + न = ऋण

3. विसर्ग सन्धि

विसर्गों का प्रयोग संस्कृत को छोड़कर संसार की किसी भी भाषा में नहीं होता है। हिन्दी में भी विसर्गों का प्रयोग नहीं के बराबर होता है। कुछ इने-गिने विसर्गयुक्त शब्द हिन्दी में प्रयुक्त होते हैं;

जैसे-

  • अत:, पुनः, प्रायः, शनैः शनैः आदि।

हिन्दी में मनः, तेजः, आयुः, हरिः के स्थान पर मन, तेज, आयु, हरि शब्द चलते हैं, इसलिए यहाँ विसर्ग सन्धि का प्रश्न ही नहीं उठता। फिर भी हिन्दी पर संस्कृत का सबसे अधिक प्रभाव है। संस्कृत के अधिकांश विधि निषेध हिन्दी में प्रचलित हैं। विसर्ग सन्धि के ज्ञान के अभाव में हम वर्तनी की अशुद्धियों से मुक्त नहीं हो सकते। अत: इसका ज्ञान होना आवश्यक है।

विसर्ग के साथ स्वर या व्यंजन के संयोग से जो विकार होता है, उसे विसर्ग सन्धि कहते हैं। इसके प्रमुख नियम निम्नलिखित हैं-

(क) यदि विसर्ग के आगे श, ष, स आए तो वह क्रमशः श्, ए, स्, में बदल जाता है;

जैसे

  • निः + शंक = निश्शंक
  • दुः + शासन = दुश्शासन
  • निः + सन्देह = निस्सन्देह
  • नि: + संग = निस्संग
  • निः + शब्द = निश्शब्द
  • निः + स्वार्थ = निस्स्वार्थ

(ख) यदि विसर्ग से पहले इ या उ हो और बाद में र आए तो विसर्ग का लोप हो जाएगा और इ तथा उ दीर्घ ई, ऊ में बदल जाएँगे;

जैसे-

  • निः + रव = नीरव
  • निः + रोग = नीरोग
  • निः + रस = नीरस

(ग) यदि विसर्ग के बाद ‘च-छ’, ‘ट-ठ’ तथा ‘त-थ’ आए तो विसर्ग क्रमशः ‘श्’, ‘ष’, ‘स्’ में बदल जाते हैं;

जैसे-

  • निः + तार = निस्तार
  • दु: + चरित्र = दुश्चरित्र
  • निः + छल = निश्छल
  • धनु: + टंकार = धनुष्टंकार
  • निः + ठुर = निष्ठुर

(घ) विसर्ग के बाद क, ख, प, फ रहने पर विसर्ग में कोई विकार (परिवर्तन) नहीं होता;

जैसे-

  • प्रात: + काल = प्रात:काल
  • पयः + पान = पयःपान
  • अन्तः + करण = अन्तःकरण

(ङ) यदि विसर्ग से पहले ‘अ’ या ‘आ’ को छोड़कर कोई स्वर हो और बाद में वर्ग के तृतीय, चतुर्थ और पंचम वर्ण अथवा य, र, ल, व में से कोई वर्ण हो तो विसर्ग ‘र’ में बदल जाता है;

जैसे-

  • दुः + निवार = दुर्निवार
  • दुः + बोध = दुर्बोध
  • निः + गुण = निर्गुण
  • नि: + आधार = निराधार
  • निः + धन = निर्धन
  • निः + झर = निर्झर

(च) यदि विसर्ग से पहले अ, आ को छोड़कर कोई अन्य स्वर आए और बाद में कोई भी स्वर आए तो भी विसर्ग र् में बदल जाता है;

जैसे-

  • नि: + आशा = निराशा
  • निः + ईह = निरीह
  • निः + उपाय = निरुपाय
  • निः + अर्थक = निरर्थक

(छ) यदि विसर्ग से पहले अ आए और बाद में य, र, ल, व या ह आए तो विसर्ग का लोप हो जाता है तथा विसर्ग ‘ओ’ में बदल जाता है;

जैसे-

  • मनः + विकार = मनोविकार
  • मन: + रथ = मनोरथ
  • पुरः + हित = पुरोहित
  • मनः + रम = मनोरम

(ज) यदि विसर्ग से पहले इ या उ आए और बाद में क, ख, प, फ में से कोई वर्ण आए तो विसर्ग ‘ष्’ में बदल जाता है;

जैसे-

  • निः + कर्म = निष्कर्म
  • निः + काम = निष्काम
  • नि: + करुण = निष्करुण
  • निः + पाप = निष्पाप
  • निः + कपट = निष्कपट
  • निः + फल = निष्फल

हिन्दी की कुछ विशेष सन्धियाँ

हिन्दी की कुछ अपनी विशेष सन्धि हैं, इनकी रूपरेखा अभी तक विशेष रूप से स्पष्ट निर्धारित नहीं हुई है, फिर भी इनका ज्ञान हमारे लिए आवश्यक है। हिन्दी की प्रमुख विशेष सन्धियाँ निम्नलिखित हैं-

1. जब, तब, कब, सब और अब आदि शब्दों के अन्त में (पीछे) ‘ही’ आने पर ह का भ हो जाता है और ब का लोप भी हो जाता है;

जैसे-

  • जब + ही = जभी
  • तब + ही = तभी
  • कब + ही = कभी
  • सब + ही = सभी
  • अब + ही = अभी

2. जहाँ, कहाँ, यहाँ, वहाँ आदि शब्दों के बाद ‘ही’ आने पर ही (स्वर सहित) लुप्त हो जाता है और अन्तिम ई पर अनुस्वार लग जाता है;

जैसे-

  • यहाँ + ही = यहीं
  • कहाँ + ही = कहीं
  • वहाँ + ही = वहीं
  • जहाँ + ही = जहीं

3. कहीं-कहीं संस्कृत के र् लोप, दीर्घ और यण आदि सन्धियों के नियम हिन्दी में नहीं लागू होते हैं;

जैसे-

  • अन्तर् + राष्ट्रीय = अन्तर्राष्ट्रीय
  • स्त्री + उपयोगी = स्त्रियोपयोगी
  • उपरि + उक्त = उपर्युक्त

Sandhi Viched In Hindi (हिन्दी के प्रमुख शब्द एवं उनके सन्धि-विच्छेद) 

  • शब्द – सन्धि – विच्छेद
  • राष्ट्राध्यक्ष – राष्ट्र + अध्यक्ष
  • नयनाभिराम – नयन + अभिराम
  • युगान्तर – युग + अन्तर
  • शरणार्थी – शरण + अर्थी
  • सत्यार्थी – सत्य + अर्थी
  • दिवसावसान – दिवस + अवसान
  • प्रसंगानुकूल – प्रसंग +अनुकूल
  • विद्यानुराग – विद्या + अनुराग
  • परमावश्यक – परम + आवश्यक
  • उदयाचल – उदय + अचल
  • ग्रामांचल – ग्रामा + अंचल
  • ध्वंसावशेष – ध्वंस + अवशेष
  • हस्तान्तरण – हस्त + अन्तरण
  • परमानन्द – परम + आनन्द
  • रत्नाकर – रत्न + आकर
  • देवालय – देव + आलय
  • धर्मात्मा – धर्म + आत्मा
  • आग्नेयास्त्र – आग्नेय + अस्त्र
  • मर्मान्तक – मर्म + अन्तक
  • रामायण – राम + अयन
  • सुखानुभूति – सुख + अनुभूति
  • आज्ञानुपालन – आज्ञा + अनुपालन
  • देहान्त – देह + अन्त
  • गीतांजलि – गीत + अंजलि
  • मात्राज्ञा – मातृ + आज्ञा
  • भयाकुल – भय + आकुल
  • त्रिपुरारि – त्रिपुर + अरि
  • आयुधागार – आयुध + आगार
  • स्वर्गारोहण – स्वर्ग + आरोहण
  • प्राणायाम – प्राण + आयाम
  • कारागार – कारा + आगार
  • शाकाहारी – शाक् + आहारी
  • फलाहार – फल + आहार
  • गदाघात – गदा + आघात
  • स्थानापन्न – स्थान + आपन्न
  • कंटकाकीर्ण – कंटक + आकीर्ण
  • स्नेहाकांक्षी – स्नेह + आकांक्षी
  • महामात्य – महा + अमात्य
  • चिकित्सालय – चिकित्सा + आलय
  • नवांकुर – नव + अंकुर
  • सहानुभूति – सह + अनुभूति
  • दीक्षान्त – दीक्षा + अन्त
  • वार्तालाप – वार्ता + आलाप
  • पुस्तकालय – पुस्तक + आलय
  • विकलांग – विकल + अंग
  • आनन्दातिरेक – आनन्द + अतिरेक
  • कामायनी – काम + अयनी
  • दीपावली – दीप +अवली
  • दावानल – दाव + अनल
  • महात्मा – महा + आत्मा
  • हिमालय – हिम + आलय
  • देशान्तर – देश + अन्तर
  • सावधान – स + अवधान
  • तीर्थाटन – तीर्थ + अटन
  • विचाराधीन – विचार + अधीन
  • मुरारि – मुर + अरि
  • कुशासन – कुश + आसन
  • उत्तमांग – उत्तम + अंग
  • सावयव – स + अवयव
  • भग्नावशेष – भग्न + अवशेष
  • धर्माधिकारी – धर्म + अधिकारी
  • जनार्दन – जन + अर्दन
  • अधिकांश – अधिक + अंश
  • गौरीश – गौरी + ईश
  • लक्ष्मीश – लक्ष्मी + ईश
  • पृथ्वीश्वर – पृथ्वी + ईश्वर
  • अनूदित – अनु + उदित
  • मंजूषा – मंजु + उषा
  • गुरूपदेश – गुरु + उपदेश
  • साधूपदेश – साधु + उपदेश
  • बहूद्देशीय – बहु + उद्देशीय
  • वधूपालम्भ – वधु + उपालम्भ
  • भानूदय – भानु + उदय
  • मधूत्सव – मधु + उत्सव
  • बहूर्ज – बहु + उर्ज
  • सिन्धूर्मि – सिन्धु + ऊर्मि
  • चमूत्तम – चमू + उत्तम
  • लघूत्तम – लघु + उत्तम
  • रचनात्मक – रचना + आत्मक
  • क्षितीन्द्र – क्षिति + इन्द्र
  • अधीश्वर – अधि + ईश्वर
  • प्रतीक्षा – प्रति + ईक्षा
  • परीक्षा – परि + ईक्षा
  • गिरीन्द्र – गिरि + इन्द्र
  • मुनीन्द्र – मुनि + इन्द्र
  • अधीक्षक – अधि + ईक्षक
  • हरीश – हरि + ईश
  • अधीन – अधि + इन
  • गिरीश – गिरि + ईश
  • वारीश – वारि + ईश
  • गणेश – गण + ईश
  • सुधीन्द्र – सुधी + इन्द्र
  • महीन्द्र – मही + इन्द्र
  • श्रीश – श्री + ईश
  • सतीश – सती + ईश
  • फणीन्द्र – फणी + इन्द्र
  • रजनीश – रजनी + ईश
  • नारीश्वर – नारी + ईश्वर
  • देवीच्छा – देवी + इच्छा
  • लक्ष्मीच्छा – लक्ष्मी + इच्छा
  • परमेश्वर – परम + ईश्वर
  • परोपकार – पर + उपकार
  • नीलोत्पल – नील + उत्पल
  • देशोपकार – देश + उपकार
  • सूर्योदय – सूर्य + उदय
  • रोगोपचार – रोग + उपचार
  • ज्ञानोदय – ज्ञान + उदय
  • पुरुषोचित – पुरुष + उचित
  • दुग्धोपजीवी – दुग्ध + उपजीवी
  • अन्त्योदय – अन्त्य + उदय
  • वेदोक्त – वेद + उक्त
  • महोदय – महा + उदय
  • विद्योन्नति – विद्या + उन्नति
  • महोपदेशक – महा + उपदेशक
  • महोपकार – महा + उपकार
  • दलितोत्थान – दलित + उत्थान
  • सर्वोपरि – सर्व + उपरि
  • सोद्देश्य – स + उद्देश्य
  • जनोपयोगी – जन + उपयोगी
  • वधूल्लास – वधू + उल्लास
  • भ्रूज़ – भ्रू + ऊर्ध्व
  • पितॄण – पितृ + ऋण
  • मातृण – मातृ + ऋण
  • योगेन्द्र – योग + इन्द्र
  • शुभेच्छा – शुभ + इच्छा
  • मानवेन्द्र – मानव + इन्द्र
  • गजेन्द्र – गज + इन्द्र
  • मृगेन्द्र – मृग + इन्द्र
  • जितेन्द्रिय – जित + इन्द्रिय
  • पूर्णेन्द्र – पूर्ण + इन्द्र
  • सुरेन्द्र – सुर + इन्द्र
  • यथेष्ट – यथा + इष्ट
  • विवाहेतर – विवाह + इतर
  • हितेच्छा – हित + इच्छा
  • साहित्येतर – साहित्य + इतर
  • शब्देतर – शब्द + इतर
  • भारतेन्द्र – भारत + इन्द्र
  • उपदेष्टा – उप + दिष्टा
  • स्वेच्छा – स्व + इच्छा
  • अन्त्येष्टि – अन्त्य + इष्टि
  • बालेन्दु – बाल + इन्दु
  • राजर्षि – राज + ऋषि
  • ब्रह्मर्षि – ब्रह्म + ऋषि
  • प्रियैषी – प्रिय + एषी
  • पुत्रैषणा – पुत्र + एषणा
  • लोकैषणा – लोक + एषणा
  • देवौदार्य – देव + औदार्य
  • परमौषध – परम + औषध
  • हितैषी – हित + एषी
  • जलौध – जल + ओध
  • वनौषधि – वन + ओषधि
  • धनैषी – धन + एषी
  • महौदार्य – महा + औदार्य
  • विश्वैक्य – विश्व + एक्य
  • स्वैच्छिक – स्व + ऐच्छिक
  • महैश्वर्य – महा + ऐश्वर्य
  • अधरोष्ठ – अधर + ओष्ठ
  • शुद्धोधन – शुद्ध + ओधन
  • स्वागत – सु + आगत
  • अन्वेषण – अनु + एषण
  • सोल्लास – स + उल्लास
  • भावोद्रेक – भाव + उद्रेक
  • धीरोद्धत – धीर + उद्धत
  • सर्वोत्तम – सर्व + उत्तम
  • मानवोचित – मानव + उचित
  • कथोपकथन – कथ + उपकथन
  • रहस्योद्घाटन – रहस्य + उद्घाटन
  • मित्रोचित – मित्र + उचित
  • नवोन्मेष – नव + उन्मेष
  • नवोदय – नव + उ
  • महोर्मि – महा + ऊर्मि
  • महोर्जा – महा + ऊर्जा
  • सूर्योष्मा – सूर्य + उष्मा
  • महोत्सव – महा + उत्सव
  • नवोढ़ा – नव + ऊढ़ा
  • क्षुधोत्तेजन – क्षुधा + उत्तेजन
  • देवर्षि – देव + ऋषि
  • महर्षि – महा + ऋषि
  • सप्तर्षि – सप्त + ऋषि
  • व्याकरण – वि + आकरण
  • प्रत्युत्तर – प्रति + उत्तर
  • उपर्युक्त – उपरि + उक्त
  • उभ्युत्थान – अभि + उत्थान
  • अध्यात्म – अधि + आत्म
  • अत्युक्ति – अति + उक्ति
  • अत्युत्तम – अति + उत्तम
  • सख्यागमन – सखी + आगमन
  • स्वच्छ – सु + अच्छ
  • तन्वंगी – तनु + अंगी
  • समन्वय – सम् + अनु + अय
  • मन्वंतर – मनु + अन्तर
  • गुर्वादेश – गुरु + आदेश
  • साध्वाचार – साधु + आचार
  • धात्विक – धातु + इक
  • नायक – नै + अक
  • गायक – गै + अक
  • गायन – गै + अन
  • विधायक – विधै + अक
  • पवन – पो + अन
  • हवन – हो + अन
  • शाचक – शौ + अक
  • अभ्यास – अभि + आस
  • पर्यवसान – परि + अवसान
  • रीत्यनुसार – रीति + अनुसार
  • अभ्यर्थना – अभि + अर्थना
  • प्रत्यभिज्ञ – प्रति + अभिज्ञ
  • प्रत्युपकार – प्रति + उपकार
  • त्र्यम्बक – त्रि + अम्बक
  • अत्यल्प – अति + अल्प
  • जात्यभिमान – जाति + अभिमान
  • गत्यानुसार – गति + अनुसार
  • देव्यागमन – देवी + आगमन
  • गुर्वौदार्य – गुरु + औदार्य
  • लघ्वोष्ठ – लघु + औष्ठ
  • मात्रुपदेश – मातृ + उपदेश
  • पर्यावरण – परि + आवरण
  • ध्वन्यात्मक – ध्वनि + आत्मक
  • अभ्यागत – अभि + आगत
  • अत्याचार – अति + आचार
  • व्याख्यान – वि + आख्यान
  • ऋग्वेद – ऋक् + वेद
  • सद्धर्म – सत् + धर्म
  • जगदाधार – जगत् + आधार
  • उद्वेग – उत् + वेग
  • अजंत – अच् + अन्त
  • षडंग – षट् + अंग
  • जगदम्बा – जगत् + अम्बा
  • जगद्गुरु – जगत् + गुरु
  • जगज्जनी – जगत् + जननी
  • उज्ज्वल – उत् + ज्वल
  • सज्जन – सत् + जन
  • सदात्मा – सत् + आत्मा
  • सदानन्द – सत् + आनन्द
  • स्यादवाद – स्यात् + वाद
  • सदवेग – सत् + वेग
  • छत्रच्छाया – छत्र + छाया
  • परिच्छेद – परि + छेद
  • सन्तोष – सम् + तोष
  • आच्छादन – आ + छादन
  • उच्चारण – उत् + चारण
  • जगन्नाथ – जगत् + नाथ
  • जगन्मोहिनी – जगत् + मोहिनी
  • श्रावण – श्री + अन
  • नाविक – नौ + इक
  • विश्वामित्र – विश्व + अमित्र
  • प्रतिकार – प्रति + कार
  • दिवारात्र – दिवा + रात्रि
  • षड्दर्शन – षट् + दर्शन
  • वागीश – वाक् + ईश
  • उन्मत् – उत् + मत
  • दिग्ज्ञान – दिक + ज्ञान
  • वाग्दान – वाक् + दान
  • वाग्व्यापार – वाक् + व्यापार
  • दिग्दिगन्त – दिक् + दिगन्त
  • सम्यक् + दर्शन – सम्यग्दर्शन
  • ‘दिक् + विजय – दिग्विजय
  • निस्सहाय – निः + सहाय
  • निस्सार – निः + सार
  • निश्चल – निः + चल
  • निष्कलुष – निः + कलुष
  • निष्काम – निः + काम
  • निष्कासन – निः + कासन
  • निश्चय – नि: + चय
  • दुश्चरित्र – दु: + चरित्र
  • निष्प्रयोजन – निः + प्रयोजन
  • निष्प्राण – निः + प्राण
  • निष्प्रभ – निः + प्रभ
  • निष्पालक – निः + पालक
  • निष्पाप – निः + पाप
  • प्राणिविज्ञान – प्राणि + विज्ञान
  • योगीश्वर – योगी + ईश्वर
  • स्वामिभक्त – स्वामी + भक्त
  • युववाणी – युव + वाणी
  • मनीष – मन + ईष
  • दुर्दशा – दु: + दशा
  • दुर्लभ – दु: + लभ
  • निर्भय – निः + भय
  • यशोगान – यशः + भूमि
  • उन्नयन – उत् + नयन
  • सन्मान – सत् + मान
  • सन्निकट – सम् + निकट
  • दण्ड – दम् + ड
  • सन्त्रास – सम् + त्रास
  • सच्चिदानन्द – सत् + चित + आनन्द
  • यावज्जीवन – यावत् + जीवन
  • तज्जन्य – तद् + जन्य
  • परोक्ष – पर + उक्ष
  • सारंग – सार + अंग
  • अनुषंगी – अनु + संगी
  • सुषुप्त – सु + सुप्त
  • प्रतिषेध – प्रति + सेध
  • दुस्साहस – दु: + साहस
  • तपोभूमि – तपः + भूमि
  • नभोमण्डल – नभः + मण्डल
  • तमोगुण – तमः + गुण
  • तिरोहित – तिरः + हित
  • दिवोज्योति – दिवः + ज्योति
  • यशोदा – यशः + दा
  • शिरोभूषण – शिरः + भूषण
  • मनोवांछा – मनः + वांछा
  • पुरोगामी – पुरः + गामी
  • मनोग्राह्य – मनः+ ग्राह्य
  • निर्मम – निः + मम
  • दुर्जन – दु: + जन
  • निराशा – नि: + आशा
  • निष्ठुर – निः + तुर
  • धनुष्टंकार– – धनुः + टंकार
  • दुश्शासन – दु: + शासन
  • शिरोरेखा – शिरः + रेखा
  • यजुर्वेद – यजुः + वेद
  • नमस्कार – नमः + कार
  • शिरस्त्राण – शिरः + त्राण
  • चतुस्सीमा – चतुः + सीमा
  • आविष्कार – आविः + कार

Sandhi in Hindi Worksheet Exercise with Answers PDF

1. अ, आ के बाद
(i) इ, ई आए तो ई ई = ए
(ii) उ, ऊ आए तो ऊ ऊ = ओ
(iii) ऋ आए तो ‘अर्’ हो जाता है। इसे कहते हैं
(a) वृद्धि सन्धि (b) गुण सन्धि
(c) अयादि सन्धि (d) दीर्घ सन्धि
उत्तर :
(b) गुण सन्धि

2. “मतैक्य’ का सन्धि-विच्छेद है-
(a) मत् + एक्य (b) मति + एक्य
(c) मत् + ऐक्य (d) मत + एक्य
उत्तर :
(d) मत + एक्य

3. इ, ई, उ, ऊ, ऋ, लु के बाद (आगे) कोई स्वर आए तो ये क्रमश: य, __ व, र, ल में बदल जाते हैं। इस परिवर्तन को कहते हैं
(a) गुण (b) अयादि
(c) वृद्धि (d) यण
उत्तर :
(d) यण

4. ‘बध्वागमन’ का सन्धि-विच्छेद है
(a) बधु + आगमन (b) बध्व + आगमन
(c) बधू + आगमन (d) बध्वा + गमन
उत्तर :
(c) बधू + आगमन

5. उ, ए, ऐ, ओ, औ के बाद कोई भिन्न स्वर आए तो ए = अय, ऐ = आय, ओ = अव, औ = आव हो जाता है। इस परिवर्तन को कहते हैं-
(a) अयादि (b) गुण
(c) दीर्घ (d) वृद्धि
उत्तर :
(a) अयादि

6. ‘हिमालय’ शब्द का सन्धि-विच्छेद है
(a) हिमा + लय (b) हिमा + अलय
(c) हिमा + आलय (d) हिम + आलय
उत्तर :
(d) हिम + आलय

7. ‘वागीश’ शब्द का सन्धि-विच्छेद है
(a) वाक् + ईश (b) वाक + ईश
(c) वाग + ईश (d) वाग + इश
उत्तर :
(a) वाक् + ईश

8. ‘वाक् + मय’-का सन्धि पद होगा
(a) वाग्मय (b) वागमय
(c) वाङ्मय (d) वाकमय
उत्तर :
(c) वाङ्मय

9. “पद + छेद’ विग्रह पद का सन्धि शब्द होगा
(a) पदछेद (b) पदछैद
(c) पदच्छेद (d) पदच्छेद
उत्तर :
(c) पदच्छेद

10. ‘संयोग’ शब्द का सन्धि-विच्छेद है
(a) सम् + योग (b) सम + योग
(c) सं + योग (d) सम्म + योग
उत्तर :
(a) सम् + योग

Ras in Hindi | रस के परिभाषा, भेद और उदाहरण – हिन्दी व्याकरण

Ras In Hindi Grammar Class 10 With Examples (रास इन हिंदी क्लास १०)

In this page we are providing all Hindi Grammar topics with detailed explanations it will help you to score more marks in your exams and also write and speak in the Hindi language easily.

Ras in Hindi (रास इन हिंदी) | Ras Ki Paribhasha, Bhed, Udaharan (Example) – Hindi Grammar

What is Ras In Hindi (Hindi Mein Ras)

रस : शब्द की व्युत्पत्ति एवं अर्थ संस्कृत में ‘रस’ शब्द की व्युत्पत्ति ‘रसस्यते असो इति रसाः’ के रूप में की गई है; अर्थात् जिसका आस्वादन किया जाए, वही रस है; परन्तु साहित्य में काव्य को पढ़ने, सुनने या उस पर आधारित अभिनय देखने से जो आनन्द प्राप्त होता है, उसे ‘रस’ कहते हैं।

सर्वप्रथम भरतमुनि ने अपने ‘नाट्यशास्त्र’ में रस के स्वरूप को स्पष्ट किया था। रस की निष्पत्ति के सम्बन्ध में उन्होंने लिखा है–

“विभावानुभावव्यभिचारिसंयोगाद्रसनिष्पत्तिः।” अर्थात् विभाव, अनुभाव तथा व्यभिचारी भाव के संयोग से रस की निष्पत्ति होती है। इस प्रकार काव्य पढ़ने, सुनने या अभिनय देखने पर विभाव आदि के संयोग से उत्पन्न होनेवाला आनन्द ही ‘रस’ है।

काव्य में रस का वही स्थान है, जो शरीर में आत्मा का है। जिस प्रकार आत्मा के अभाव में प्राणी का अस्तित्व सम्भव नहीं है, उसी प्रकार रसहीन कथन को काव्य नहीं कहा जा सकता। इस प्रकार रस ‘काव्य की आत्मा ‘ है।

भरतमुनि द्वारा रस की परिभाषा-

रस उत्पत्ति को सबसे पहले परिभाषित करने का श्रेय भरत मुनि को जाता है। उन्होंने अपने ‘नाट्यशास्त्र’ में रास रस के आठप्रकारों का वर्णन किया है। रस की व्याख्या करते हुए भरतमुनि कहते हैं कि सब नाट्य उपकरणों द्वारा प्रस्तुत एक भावमूलक कलात्मक अनुभूति है। रस का केंद्र रंगमंच है। भाव रस नहीं, उसका आधार है किंतु भरत ने स्थायी भाव को ही रस माना है।

रस की काव्यशास्त्र के सिद्धान्त

हिन्दी-

  • सिद्धान्त – प्रवर्तक
  • रीतिवाद – केशवदास (रामचन्द्र शुक्ल ने चिन्तामणि कों हिन्दी में रीतिवाद का प्रवर्तक माना है।)
  • स्वच्छन्दतावाद – श्रीधर पाठक
  • छायावाद – जयशंकर प्रसाद
  • हालावाद – हरिवंशराय बच्चन’
  • मांसलवाद – रामेश्वर शुक्ल ‘अंचल’
  • प्रयोगवाद – अज्ञेय
  • कैप्सूलवाद – ओंकारनाथ त्रिपाठी
  • प्रपद्यवाद (नकेनवाद) – नलिन विलोचन शर्मा, केसरी कुमार, नरेश कुमार

रस की पाश्चात्य

  • सिद्धान्त – प्रवर्तक
  • अनुकरण सिद्धान्त – अरस्तू
  • त्रासदी तथा विरेचन सिद्धान्त – अरस्तू
  • औदात्यवाद – लोंजाइनस
  • सम्प्रेषण सिद्धान्त – आई.ए. रिचर्ड्स
  • निर्वैयक्तिकता का सिद्धान्त – टी. एस. इलियट
  • अभिव्यंजनावाद – बेनदेतो क्रोचे
  • अस्तित्ववाद – सॉरेन कीर्कगार्द
  • द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद – कार्ल मार्क्स
  • मार्क्सवाद – कार्ल मार्क्स
  • मनोविश्लेषणवाद – फ्रॉयड
  • विखण्डनवाद – जॉक देरिदा
  • कल्पना सिद्धान्त – कॉलरिज
  • स्वच्छन्दतावाद – विलियम्स वर्ड्सवर्थ
  • प्रतीकवाद – जॉन मोरियस
  • बिम्बवाद – टी.ई. ह्यम

रस की पाश्चात्य आलोचकों की प्रमुख पुस्तकें व उनके रचनाकार

  • पुस्तक – लेखक/रचनाकार
  • इओन, सिंपोसियोन, पोलितेइया, रिपब्लिक, नोमोई – प्लेटो
  • तेखनेस रितोरिकेस, पेरिपोइतिकेस – अरस्तू
  • पेरिइप्सुस – लोंजाइनस
  • बायोग्राफिया लिटरेरिया, द फ्रेंड, एड्सटू रिफ्लेक्शन – कॉलरिज
  • लिरिकल बैलेड्स – विलियम वर्ड्सवर्थ
  • एस्थेटिक – बेनदेतो क्रोचे
  • द सेक्रेड वुड, सेलेक्टेड एसेस, एसेस एन्शेंट एंड मॉडर्न – टी.एस. इलियट
  • प्रिंसिपल ऑफ लिटरेरी क्रिटिसिज्म, कॉलरिज आन इमेजिनेशन – आई.ए. रिचर्ड्स
  • ऐस्से ऑन क्रिटिसिज्म – पोप
  • रिवेल्युएशंस, द कॉमन पर्स्ट – एफ. आर. लिविस
  • ग्रामर ऑफ मोटिक्स – केनेथ बर्क
  • क्रिटिक्स एण्ड क्रिटिसिज़्म – आर.एस. क्रेन

रस

रस सिद्धान्त भारतीय काव्य-शास्त्र का अति प्राचीन और प्रतिष्ठित सिद्धान्त है। नाट्यशास्त्र के प्रवर्तक आचार्य भरतमुनि का यह प्रसिद्ध सूत्र ‘रस-सिद्धान्त’ का मूल हैं-

विभावानुभावव्याभिचारिसंयोगाद्रसनिष्पत्तिः

अर्थात् विभाव, अनुभाव और व्यभिचारी भावों के संयोग से रस की निष्पत्ति होती है। इस रस सूत्र का विवेचन सर्वप्रथम आचार्य भरत मुनि ने अपने ‘नाट्यशास्त्र’ में किया।

साहित्य को पढ़ने, सुनने या नाटकादि को देखने से जो आनन्द की अनुभूति होती है, उसे ‘रस’ कहते हैं। रस के मुख्य रुप से चार अंग माने जाते हैं, जो निम्न प्रकार हैं

1. स्थायी भाव हृदय में मूलरूप से विद्यमान रहने वाले भावों को स्थायी भाव कहते हैं। ये चिरकाल तक रहने वाले तथा रस रूप में सृजित या परिणत होते हैं। स्थायी भावों की संख्या नौ है-रति, हास, शोक, क्रोध, उत्साह, भय, जुगुप्सा, विस्मय और निवेद।
2. विभाव जो व्यक्ति वस्तु या परिस्थितियाँ स्थायी भावों को उद्दीपन या जागृत करती हैं, उन्हें विभाव कहते हैं। विभाष दो प्रकार के होते हैं-

(i) आलम्बन विभाव जिन वस्तुओं या विषयों पर आलम्बित होकर भाव उत्पन्न होते हैं, उन्हें आलम्बन विभाव कहते हैं; जैसे-नायक-नायिका।

आलम्बन के भी दो भेद हैं-
(अ) आश्रय जिस व्यक्ति के मन में रति आदि भाव उत्पन्न होते हैं, उसे आश्रय कहते हैं।
(ब) विषय जिस वस्तु या व्यक्ति के लिए आश्रय के मन में भाव उत्पन्न होते हैं, उसे विषय कहते हैं।

(ii) उद्दीपन विभाव आश्रय के मन में भावों को उद्दीप्त करने वाले विषय की बाह्य चेष्टाओं और बाह्य वातावरण को उद्दीपन विभाव. कहते हैं; जैसे-शकुन्तला को देखकर दुष्यन्त के मन में आकर्षण (रति भाव) उत्पन्न होता है। उस समय शकुन्तला की शारीरिक चेष्टाएँ तथा वन का सुरम्य, मादक और एकान्त वातावरण दुष्यन्त के मन में रति भाव को और अधिक तीव्र करता है, अतः यहाँ शकुन्तला की शारीरिक चेष्टाएँ तथा वन का एकान्त वातावरण आदि को उद्दीपन विभाव कहा जाएगा।

3. अनुभाव आलम्बन तथा उद्दीपन के द्वारा आश्रय के हृदय में स्थायी भाव जागृत या उद्दीप्त होने पर आश्रय में जो चेष्टाएँ होती हैं, उन्हें अनुभाव कहते हैं। अनुभाव चार प्रकार के माने गए हैं-कायिक, मानसिक, आहार्य और सात्विका सात्विक अनुभाव की संख्या आठ है, जो निम्न प्रकार है-

  1. स्तम्भ
  2. स्वेद
  3. रोमांच
  4. स्वर- भंग
  5. कम्प
  6. विवर्णता (रंगहीनता)
  7. अक्षु
  8. प्रलय (संज्ञाहीनता)।

4. संचारी भाव आश्रय के चित्त में उत्पन्न होने वाले अस्थिर मनोविकारों को संचारी भाव कहते हैं। इनके द्वारा स्थायी भाव और तीव्र हो जाता है। संचारी भावों की संख्या 33 है-हर्ष, विषाद, त्रास, लज्जा (व्रीड़ा), ग्लानि, चिन्ता, शंका, असूया, अमर्ष, मोह, गर्व, उत्सुकता, उग्रता, चपलता, दीनता, जड़ता, आवेग, निर्वेद, धृति, मति, विबोध, वितर्क, श्रम, आलस्य, निद्रा, स्वप्न, स्मृति, मद, उन्माद, अवहित्था, अपस्मार, व्याधि, मरण। आचार्य देव कवि ने ‘छल’ को चौतीसवाँ संचारी भाव माना है।

रस के प्रकार

आचार्य भरतमुनि ने नाटकीय महत्त्व को ध्यान में रखते हुए आठ रसों का उल्लेख किया-शृंगार, हास्य, करुण, रौद्र, वीर, भयानक, बीभत्स एवं अद्भुत। आचार्य मम्मट और पण्डितराज जगन्नाथ ने रसों की संख्या नौ मानी है-श्रृंगार, हास, करुण, रौद्र, वीर, भयानक, बीभत्स, अद्भुत और शान्त। आचार्य विश्वनाथ ने वात्सल्य को दसवाँ रस माना है तथा रूपगोस्वामी ने ‘मधुर’ नामक ग्यारहवें रस की स्थापना की, जिसे भक्ति रस के रूप में मान्यता मिली। वस्तुत: रस की संख्या नौ ही हैं, जिनका वर्णन निम्नलिखित है-

  1. श्रृंगार रस
  2. हास्य रस
  3. करुण रस
  4. वीर रस
  5. रौद्र रस
  6. भयानक रस
  7. बीभत्स रस
  8. अद्भुत रस
  9. शान्त रस
  10. वात्सल्य रस
  11. भक्ति रस

1. श्रृंगार रस

आचार्य भोजराज ने ‘शृंगार’ को ‘रसराज’ कहा है। शृंगार रस का आधार स्त्री-पुरुष का पारस्परिक आकर्षण है, जिसे काव्यशास्त्र में रति स्थायी भाव कहते हैं। जब विभाव, अनुभाव और संचारी भाव के संयोग से रति स्थायी भाव आस्वाद्य हो जाता है तो उसे श्रृंगार रस कहते हैं। शृंगार रस में सुखद और दुःखद दोनों प्रकार की अनुभूतियाँ होती हैं; इसी आधार पर इसके दो भेद किए गए हैं-संयोग शृंगार और वियोग श्रृंगार।

(i) संयोग श्रृंगार
जहाँ नायक-नायिका के संयोग या मिलन का वर्णन होता है, वहाँ संयोग शृंगार होता है। उदाहरण-

“चितवत चकित चहूँ दिसि सीता।
कहँ गए नृप किसोर मन चीता।।
लता ओर तब सखिन्ह लखाए।
श्यामल गौर किसोर सुहाए।।
थके नयन रघुपति छबि देखे।
पलकन्हि हूँ परिहरी निमेषे।।
अधिक सनेह देह भई भोरी।
सरद ससिहिं जनु चितव चकोरी।।
लोचन मग रामहिं उर आनी।
दीन्हें पलक कपाट सयानी।।”

यहाँ सीता का राम के प्रति जो प्रेम भाव है वही रति स्थायी भाव है राम और सीता आलम्बन विभाव, लतादि उद्दीपन विभाव, देखना, देह का भारी होना आदि अनुभाव तथा हर्ष, उत्सुकता आदि संचारी भाव हैं, अत: यहाँ पूर्ण संयोग शृंगार रस है।

(ii) वियोग या विप्रलम्भ श्रृंगार
जहाँ वियोग की अवस्था में नायक-नायिका के प्रेम का वर्णन होता है, वहाँ वियोग या विप्रलम्भ शृंगार होता है। उदाहरण-

“कहेउ राम वियोग तब सीता।
मो कहँ सकल भए विपरीता।।
नूतन किसलय मनहुँ कृसानू।
काल-निसा-सम निसि ससि भानू।।
कुवलय विपिन कुंत बन सरिसा।
वारिद तपत तेल जनु बरिसा।।
कहेऊ ते कछु दुःख घटि होई।
काहि कहौं यह जान न कोई।।”

यहाँ राम का सीता के प्रति जो प्रेम भाव है वह रति स्थायी भाव, राम आश्रय, सीता आलम्बन, प्राकृतिक दृश्य उद्दीपन विभाव, कम्प, पुलक और अश्रु अनुभाव तथा विषाद, ग्लानि, चिन्ता, दीनता आदि संचारी भाव हैं, अत: यहाँ वियोग शृंगार रस है।

2. हास्य रस

विकृत वेशभूषा, क्रियाकलाप, चेष्टा या वाणी देख-सुनकर मन में जो विनोदजन्य उल्लास उत्पन्न होता है, उसे हास्य रस कहते हैं। हास्य रस का स्थायी भाव हास है।
उदाहरण-

“जेहि दिसि बैठे नारद फूली।
सो दिसि तेहि न विलोकी भूली।।
पुनि पुनि मुनि उकसहिं अकुलाहीं।
देखि दसा हरिगन मुसकाहीं।।”

यहाँ स्थायी भाव हास, आलम्बन वानर रूप में नारद, आश्रय दर्शक, श्रोता उद्दीपन नारद की आंगिक चेष्टाएँ; जैसे-उकसना, अकुलाना बार-बार स्थान बदलकर बैठना अनुभाव हरिगण एवं अन्य दर्शकों की हँसी और संचारी भाव हर्ष, चपलता, उत्सुकता आदि हैं, अत: यहाँ हास्य रस है।

3. करुण रस

दुःख या शोक की संवेदना बड़ी गहरी और तीव्र होती है, यह जीवन में सहानुभूति का भाव विस्तृत कर मनुष्य को भोग भाव से धनाभाव की ओर प्रेरित करता है। करुणा से हमदर्दी, आत्मीयता और प्रेम उत्पन्न होता है जिससे व्यक्ति परोपकार की ओर उन्मुख होता है। इष्ट वस्तु की हानि, अनिष्ट वस्तु का लाभ, प्रिय का चिरवियोग, अर्थ हानि, आदि से जहाँ शोकभाव की परिपुष्टि होती है, वहाँ करुण रस होता है। करुण रस का स्थायी भाव शोक है। उदाहरण-

“सोक विकल एब रोवहिं रानी।
रूप सील बल तेज बखानी।।
करहिं विलाप अनेक प्रकारा।
परहिं भूमितल बारहिं बारा।।”

यहाँ स्थायी भाव शोक, दशरथ आलम्बन, रानियाँ आश्रय, राजा का रूप तेज बल आदि उद्दीपन रोना, विलाप करना अनुभाव और स्मृति, मोह, उद्वेग कम्प आदि संचारी भाव हैं, अत: यहाँ करुण रस है।

4. वीर रस

युद्ध अथवा किसी कठिन कार्य को करने के लिए हृदय में निहित ‘उत्साह’ स्थायी भाव के जाग्रत होने के प्रभावस्वरूप जो भाव उत्पन्न होता है, उसे वीर रस कहा जाता है।

उत्साह स्थायी भाव जब विभाव, अनुभाव और संचारी भावों में परिपुष्ट होकर आस्वाद्य हो जाता है, तब वीर रस उत्पन्न होता है। उदाहरण

“मैं सत्य कहता हूँ सखे! सुकुमार मत जानो मुझे।
यमराज से भी युद्ध में प्रस्तुत सदा जानो मुझे।।
हे सारथे! हैं द्रोण क्या? आवें स्वयं देवेन्द्र भी।
वे भी न जीतेंगे समर में आज क्या मुझसे कभी।।”

यहाँ स्थायी भाव उत्साह आश्रय अभिमन्युद्ध आलम्बन द्रोण आदि कौरव पक्ष, अनुभाव अभिमन्यु के वचन और संचारी भाव गर्व, हर्ष, उत्सुकता, कम्प मद, आवेग, उन्माद आदि हैं, अत: यहाँ वीर रस है।।

5. रौद्र रस

रौद्र रस का स्थायी भाव क्रोध है। विरोधी पक्ष द्वारा किसी व्यक्ति, देश, समाज या धर्म का अपमान या अपकार करने से उसकी प्रतिक्रिया में जो क्रोध उत्पन्न होता है, वह विभाव, अनुभाव और संचारी भावों में परिपुष्ट होकर आस्वाद्य हो जाता है और तब रौद्र रस उत्पन्न होता है। उदाहरण

“माखे लखन कुटिल भयीं भौंहें।
रद-पट फरकत नयन रिसौहैं।।
कहि न सकत रघुबीर डर, लगे वचन जनु बान।
नाइ राम-पद-कमल-जुग, बोले गिरा प्रमान।।”

यहाँ स्थायी भाव क्रोध, आश्रय लक्ष्मण, आलम्बन जनक के वचन उद्दीपन जनक के वचनों की कठोरता ,अनुभाव भौंहें तिरछी होना, होंठ फड़कना, नेत्रों का रिसौहैं होना संचारी भाव अमर्ष-उग्रता, कम्प आदि हैं, अत: यहाँ रौद्र रस है।

6. भयानक रस

भयप्रद वस्तु या घटना देखने सुनने अथवा प्रबल शत्रु के विद्रोह आदि से भय का संचार होता है। यही भय स्थायी भाव जब विभाव, अनुभाव और संचारी भावों में परिपुष्ट होकर आस्वाद्य हो जाता है तो वहाँ भयानक रस होता है। उदाहरण-

“एक ओर अजगरहि लखि, एक ओर मृगराय।
विकल बटोही बीच ही, परयों मूरछा खाय।।”

यहाँ पथिक के एक ओर अजगर और दूसरी ओर सिंह की उपस्थिति से वह भय के मारे मूर्छित हो गया है। यहाँ भय स्थायी भाव, यात्री आश्रय, अजगर और सिंह आलम्बन, अजगर और सिंह की भयावह आकृतियाँ और उनकी चेष्टाएँ उद्दीपन, यात्री को मूर्छा आना अनुभाव और आवेग, निर्वेद, दैन्य, शंका, व्याधि, त्रास, अपस्मार आदि संचारी भाव हैं, अत: यहाँ भयानक रस है।

7. बीभत्स रस

वीभत्स रस का स्थायी भाव जुगुप्सा या घृणा है। अनेक विद्वान् इसे सहृदय के अनुकूल नहीं मानते हैं, फिर भी जीवन में जुगुप्सा या घृणा उत्पन्न करने वाली परिस्थितियाँ तथा वस्तुएँ कम नहीं हैं। अत: घृणा का स्थायी भाव जब विभाव, अनुभाव और संचारी भावों से पुष्ट होकर आस्वाद्य हो जाता है तब बीभत्स रस उत्पन्न होता है। उदाहरण-

“सिर पर बैठ्यो काग आँख दोउ खात निकारत।
खींचत जीभहिं स्यार अतिहि आनन्द उर धारत।।
गीध जाँघ को खोदि खोदि के मांस उपारत।
स्वान आंगुरिन काटि-काटि कै खात विदारत।।”

यहाँ राजा हरिश्चन्द्र श्मशान घाट के दृश्य को देख रहे हैं। उनके मन में उत्पन्न जुगुप्सा या घृणा स्थायी भाव, दर्शक (हरिश्चन्द्रं) आश्रय, मुदें, मांस और श्मशान का दृश्य आलम्बन, गीध, स्यार, कुत्तों आदि का मांस नोचना और खाना उद्दीपन, दर्शक/राजा हरिश्चन्द्र का इनके बारे में सोचना अनुभाव और मोह, ग्लानि आवेग, व्याधि आदि संचारी भाव हैं, अत: यहाँ बीभत्स रस है।

8. अद्भुत रस

अलौकिक, आश्चर्यजनक दृश्य या वस्तु को देखकर सहसा विश्वास नहीं होता और मन में स्थायी भाव विस्मय उत्पन्न होता है। यही विस्मय जब विभाव, अनुभाव और संचारी भावों में पुष्ट होकर आस्वाद्य हो जाता है, तो अद्भुत रस उत्पन्न होता है। उदाहरण-

“अम्बर में कुन्तल जाल देख,
पद के नीचे पाताल देख,
मुट्ठी में तीनों काल देख,
मेरा स्वरूप विकराल देख,
सब जन्म मझी से पाते हैं,
फिर लौट मुझी में आते हैं।”

यहाँ स्थायी भाव विस्मय, ईश्वर का विराट् स्वरूप आलम्बन, विराट् के अद्भुत क्रियाकलाप उद्दीपन, आँखें फाड़कर देखना, स्तब्ध, अवाक् रह जाना अनुभाव और भ्रम, औत्सुक्य, चिन्ता, त्रास आदि संचारी भाव हैं, अत: यहाँ अद्भुत रस है।

9. शान्त रस

अभिनवगुप्त ने शान्त रस को सर्वश्रेष्ठ माना है। संसार और जीवन की नश्वरता का बोध होने से चित्त में एक प्रकार का विराग उत्पन्न होता है परिणामत: मनुष्य भौतिक तथा लौकिक वस्तुओं के प्रति उदासीन हो जाता है, इसी को निर्वेद कहते हैं। जो विभाव, अनुभाव और संचारी भावों से पुष्ट होकर शान्त रस में परिणत हो जाता है। उदाहरण-

“सुत वनितादि जानि स्वारथरत न करु नेह सबही ते।
अन्तहिं तोहि तजेंगे पामर! तू न तजै अबही ते।
अब नाथहिं अनुराग जाग जड़, त्यागु दुरदसा जीते।
बुझै न काम अगिनि ‘तुलसी’ कहुँ विषय भोग बहु घी ते।।”

यहाँ स्थायी भाव, निर्वेद आश्रय, सम्बोधित सांसारिक जन आलम्बन, सुत वनिता आदि अनुभाव, सुत वनितादि को छोड़ने को कहना संचारी भाव धृति, मति विमर्श आदि हैं, अत: यहाँ शान्त रस है। शास्त्रीय दृष्टि से नौ ही रस माने गए हैं लेकिन कुछ विद्वानों ने सूर और तुलसी की रचनाओं के आधार पर दो नए रसों को मान्यता प्रदान की है-वात्सल्य और भक्ति।

10. वात्सल्य रस

वात्सल्य रस का सम्बन्ध छोटे बालक-बालिकाओं के प्रति माता-पिता एवं सगे-सम्बन्धियों का प्रेम एवं ममता के भाव से है। हिन्दी कवियों में सूरदास ने वात्सल्य रस को पूर्ण प्रतिष्ठा दी है। तुलसीदास की विभिन्न कृतियों के बालकाण्ड में वात्सल्य रस की सुन्दर व्यंजना द्रष्टव्य है। वात्सल्य रस का स्थायी भाव वत्सलता या स्नेह है। उदाहरण-

“किलकत कान्ह घुटुरुवनि आवत।
मनिमय कनक नन्द के आँगन बिम्ब पकरिबे धावत।
कबहुँ निरखि हरि आप छाँह को कर सो पकरन चाहत।
किलकि हँसत राजत द्वै दतियाँ पुनि पुनि तिहि अवगाहत।।”

यहाँ स्थायी भाव वत्सलता या स्नेह, आलम्बन कृष्ण की बाल सुलभ चेष्टाएँ, उद्दीपन किलकना, बिम्ब को पकड़ना, अनुभाव रोमांचित होना, मुख चूमना, संचारी भाव हर्ष, गर्व, चपलता, उत्सुकता आदि हैं, अत: यहाँ वात्सल्य रस है।

11. भक्ति रस

भक्ति रस शान्त रस से भिन्न है। शान्त रस जहाँ निर्वेद या वैराग्य की ओर ले जाता है वहीं भक्ति ईश्वर विषयक रति की ओर ले जाते हैं यही इसका स्थायी भाव भी है। भक्ति रस के पाँच भेद हैं-शान्त, प्रीति, प्रेम, वत्सल और मधुर। ईश्वर के प्रति भक्ति भावना स्थायी रूप में मानव संस्कार में प्रतिष्ठित है, इस दृष्टि से भी भक्ति रस मान्य है। उदाहरण-

“मेरे तो गिरिधर गोपाल दूसरो न कोई।
जाके सिर मोर मुकुट मेरो पति सोई।।
साधुन संग बैठि बैठि लोक-लाज खोई।
अब तो बात फैल गई जाने सब कोई।।”

यहाँ स्थायी भाव ईश्वर विषयक रति, आलम्बन श्रीकृष्ण उद्दीपन कृष्ण लीलाएँ, सत्संग, अनुभाव-रोमांच, अश्रु, प्रलय, संचारी भाव हर्ष, गर्व, निर्वेद, औत्सुक्य आदि हैं, अत: यहाँ भक्ति रस है।

Ras in Hindi Worksheet Exercise Questions with Answers PDF

प्रश्ना1.
रस सिद्धान्त के आदि प्रवर्तक कौन हैं?
(a) भरतमुनि (b) भानुदत्त (c) विश्वनाथ (d) भामह
उत्तर :
(a) भरतमुनि

प्रश्ना 2.
आचार्य भरत ने कितने रसों का उल्लेख किया है?
(a) सात (b) आठ (c) नौ (d) दस
उत्तर :
(b) आठ

प्रश्ना 3.
काव्यशास्त्र में हास्य के कितने भेद माने गए हैं?
(a) छ: (b) सात (c) चार (d) दो
उत्तर :
(a) छ:

प्रश्ना 4.
काव्यशास्त्र के अनुसार रसों की सही संख्या है ।
(a) आठ (b) नौ (c) दस (d) ग्यारह
उत्तर :
(b) नौ

प्रश्ना 5.
संचारी भावों की संख्या है।
(a) 27 (b) 29 (c) 31 (d) 33
उत्तर :
(d) 33

प्रश्ना 6.
भक्ति रस की स्थापना किसने की?
(a) भरत ने (b) विश्वनाथ ने (c) रूपगोस्वामी ने (d) मम्मट ने
उत्तर :
(c) रूपगोस्वामी ने

प्रश्ना 7.
सात्विक अनुभाव कितने हैं?
(a) दो (b) चार (c) छ: (d) आठ
उत्तर :
(d) आठ

प्रश्ना 8.
निर्जन नटि-नटि पुनि लजियावै।
छिन रिसाई छिन सैन बुलावे।।
इस चौपाई में कौन-सा रस है?
(a) संयोग शृंगार (b) वियोग शृंगार (c) करुण रस (d) अद्भुत रस
उत्तर :
(a) संयोग शृंगार

प्रश्ना 9.
आचार्य भरत ने सर्वाधिक सुखात्मक रस किसे माना है?
(a) शृंगार रस (b) हास्य रस (c) वीर रस (d) शान्त रस
उत्तर :
(b) हास्य रस

प्रश्ना 10.
आलम्बन तथा उद्दीपन द्वारा आश्रय के हृदय में स्थायी भाव जागृत होने पर आश्रय में जो चेष्टाएँ होती हैं, उन्हें क्या कहते हैं?
(a) विभाव (b) अनुभाव (c) उद्दीपन (d) संचारी भाव
उत्तर :
(b) अनुभाव

Chhand in Hindi (छन्द) | छंद की परिभाषा, प्रकार, भेद और उदाहरण – हिन्दी व्याकरण,

Chhand in Hindi

In this page we are providing all Hindi Grammar topics with detailed explanations it will help you to score more marks in your exams and also write and speak in the Hindi language easily.

छंद – Chhand Ki Paribhasha, Prakar, Bhed, aur Udaharan (Examples) – Hindi Grammar

छन्द जिस रचना में मात्राओं और वर्णों की विशेष व्यवस्था तथा संगीतात्मक लय और गति की योजना रहती है, उसे ‘छन्द’ कहते हैं। ऋग्वेद के पुरुषसूक्त के नवम् छन्द में ‘छन्द’ की उत्पत्ति ईश्वर से बताई गई है। लौकिक संस्कृत के छम्दों का जन्मदाता वाल्मीकि को माना गया है। आचार्य पिंगल ने ‘छन्दसूत्र’ में छन्द का सुसम्बद्ध वर्णन किया है, अत: इसे छन्दशास्त्र का आदि ग्रन्थ माना जाता है। छन्दशास्त्र को ‘पिंगलशास्त्र’ भी कहा जाता है। हिन्दी साहित्य में छन्दशास्त्र की दृष्टि से प्रथम कृति ‘छन्दमाला’ है। छन्द के संघटक तत्त्व आठ हैं, जिनका वर्णन निम्नलिखित है-

  1. चरण छन्द कुछ पंक्तियों का समूह होता है और प्रत्येक पंक्ति में समान वर्ण या मात्राएँ होती हैं। इन्हीं पंक्तियों को ‘चरण’ या ‘पाद’ कहते हैं। प्रथम व तृतीय चरण को ‘विषम’ तथा दूसरे और चौथे चरण को ‘सम’ कहते हैं।
  2. वर्ण ध्वनि की मूल इकाई को ‘वर्ण’ कहते हैं। वर्णों के सुव्यवस्थित समूह या समुदाय को ‘वर्णमाला’ कहते हैं। छन्दशास्त्र में वर्ण दो प्रकार के होते हैं-‘लघु’ और ‘गुरु’।
  3. मात्रा वर्गों के उच्चारण में जो समय लगता है, उसे ‘मात्रा’ कहते हैं। लघु वर्णों की मात्रा एक और गुरु वर्णों की मात्राएँ दो होती हैं। लघु को तथा गुरु को 5 द्वारा व्यक्त करते हैं।
  4. क्रम वर्ण या मात्रा की व्यवस्था को ‘क्रम’ कहते हैं; जैसे-यदि “राम कथा मन्दाकिनी चित्रकूट चित चारु” दोहे के चरण को ‘चित्रकूट चित चारु, रामकथा मन्दाकिनी’ रख दिया जाए तो सारा क्रम बिगड़कर सोरठा का चरण हो जाएगा।
  5. यति छन्दों को पढ़ते समय बीच-बीच में कुछ रुकना पड़ता है। इन्हीं विराम स्थलों को ‘यति’ कहते हैं। सामान्यतः छन्द के चार चरण होते हैं और प्रत्येक चरण के अन्त में ‘यति’ होती है। 6. गति ‘गति’ का अर्थ ‘लय’ है। छन्दों को पढ़ते समय मात्राओं के लघु अथवा दीर्घ होने के कारण जो विशेष स्वर लहरी उत्पन्न होती है, उसे ही ‘गति’ या ‘लय’ कहते हैं।
  6. तुक छन्द के प्रत्येक चरण के अन्त में स्वर-व्यंजन की समानता को ‘तुक’ कहते हैं। जिस छन्द में तुक नहीं मिलता है, उसे ‘अतुकान्त’ और जिसमें तुक मिलता है, उसे ‘तुकान्त’ छन्द कहते हैं।
  7. गण तीन वर्गों के समूह को ‘गण’ कहते हैं। गणों की संख्या आठ है-यगण, मगण, तगण, रगण, जगण, भगण, नगण और सगण। इन गणों के नाम रूप ‘यमातराजभानसलगा’ सूत्र द्वारा सरलता से ज्ञात हो जाते हैं। उल्लेखनीय है कि इन गणों के अनुसार मात्राओं का क्रम वार्णिक वृत्तों या छन्दों में होता है, मात्रिक छन्द इस बन्धन से मुक्त हैं। गणों के नाम, सूत्र चिह्न और उदाहरण इस प्रकार हैं-
  • गण – सूत्र – चिह्न – उदाहरण
  • यगण – यमाता – ।ऽऽ – बहाना
  • मगण – मातारा – ऽऽऽ – आज़ादी
  • तगण – ताराज – ऽऽ। – बाज़ार
  • रगण – राजभा – ऽ।ऽ – नीरजा
  • जगण – जभान – ।ऽ। – महेश
  • भगण – भानस – ऽ।। – मानस
  • नगण – नसल – ।।। – कमल
  • सगण – सलगा – ।।ऽ – ममता

छन्द के प्रकार

छन्द चार प्रकार के होते हैं-

  • वर्णिक
  • मात्रिक
  • उभय
  • मुक्तक या स्वच्छन्द।

मुक्तक छन्द को छोड़कर शेष-वर्णिक, मात्रिक और उभय छन्दों के तीन-तीन उपभेद हैं, ये तीन उपभेद निम्न प्रकार है-

  • सम छन्द के चार चरण होते हैं और चारों की मात्राएँ या वर्ण समान ही होते हैं; जैसे–चौपाई, इन्द्रवज्रा आदि
  • अर्द्धसम छन्द के पहले और तीसरे तथा दूसरे और चौथे चरणों की मात्राओं या वर्गों में परस्पर समानता होती है जैसे-दोहा, सोरठा आदि।
  • विषम नाम से ही स्पष्ट है। इसमें चार से अधिक, छ: चरण होते हैं और वे एक समान (वजन के) नहीं होते; जैसे-कुण्डलियाँ, छप्पय आदि।

छन्दों का विवेचन

वर्णिक छन्द

जिन छन्दों की रचना वर्णों की गणना के आधार पर की जाती है उन्हें वर्णवृत्त या वर्णिक छन्द कहते हैं। प्रतियोगिता परीक्षाओं की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण वर्णिक छन्दों का विवेचन इस प्रकार है-

1. इन्द्रवज्रा
इसके प्रत्येक चरण में ग्यारह वर्ण होते हैं, पाँचवें या छठे वर्ण पर यति होती है। इसमें दो तगण (ऽऽ।, ऽऽ।), एक जगण (।ऽ।) तथा अन्त में दो गुरु (ऽऽ) होते हैं;

जैसे-
ऽ ऽ ।ऽ ऽ। ।ऽ।। ऽ
“जो मैं नया ग्रन्थ विलोकता हूँ,
भाता मुझे सो नव मित्र सा है।
देखू उसे मैं नित सार वाला,
मानो मिला मित्र मुझे पुराना।”

2. उपेन्द्रवज्रा
इसके भी प्रत्येक चरण में ग्यारह वर्ण होते हैं, पाँचवें व छठे वर्ण पर यति होती है। इसमें जगण (।ऽ।), तगण (ऽऽ।), जगण (।ऽ।) तथा अन्त में दो गुरु (ऽऽ) होते हैं;

जैसे-
।ऽ । ऽऽ । ऽ। ऽऽ
“बड़ा कि छोटा कुछ काम कीजै।
परन्तु पूर्वापर सोच लीजै।।
बिना विचारे यदि काम होगा।
कभी न अच्छा परिणाम होगा।।”

विशेष इन्द्रवज्रा का पहला वर्ण गुरु होता है, यदि इसे लघु कर दिया जाए तो ‘उपेन्द्रवज्रा’ छन्द बन जाता है।

3. वसन्ततिलका
इस छन्द के प्रत्येक चरण में चौदह वर्ण होते हैं। वर्णों के क्रम में तगण (ऽऽ।), भगण (ऽ।।), दो जगण (।ऽ।, ।ऽ।) तथा दो गुरु (ऽऽ) रहते हैं;

जैसे-
ऽ ऽ ।ऽ ।।। ऽ ।।ऽ।ऽ ऽ
“भू में रमी शरद की कमनीयता थी।
नीला अनंत नभ निर्मल हो गया था।।”

4. मालिनी मजुमालिनी
इस छन्द में । ऽ वर्ण होते हैं तथा आठवें व सातवें वर्ण पर यति होती है। वर्गों के क्रम में दो नगण (।।, ।।।), एक मगण (ऽऽऽ) तथा दो यगण (।ऽऽ, ।ऽऽ) होते हैं;

जैसे-
।। ।। ।। ऽऽ ऽ। ऽऽ ।ऽ ऽ
“प्रिय पति वह मेरा, प्राण प्यारा कहाँ है?
दुःख जलधि में डूबी, का सहारा कहाँ है?
अब तक जिसको मैं, देख के जी सकी हूँ
वह हृदय हमारा, नेत्र-तारा कहाँ है?”

5. मन्दाक्रान्ता
इस छन्द के प्रत्येक चरण में एक मगण
(ऽऽऽ), एक भगण (ऽ।।), एक नगण (।।), दो तगण (ऽऽ।, ऽऽ।) तथा दो गुरु (ऽऽ) मिलाकर 17 वर्ण होते हैं। चौथे, छठवें तथा सातवें वर्ण पर यति होती है;

जैसे-
ऽऽ ऽऽ ।। ।। ।ऽ ऽ ।ऽ ऽ। ऽऽ
“तारे डूबे तम टल गया छा गई व्योम लाली।
पंछी बोले तमचुर जगे ज्योति फैली दिशा में।”

6. शिखरिणी
इस छन्द के प्रत्येक चरण में एक यगण (।ऽऽ), एक मगण (ऽऽऽ), एक नगण (।।।), एक सगण (।।ऽ), एक भगण (ऽ।।), एक लघु (।) एवं एक गुरु (ऽ) होता है। इसमें 17 वर्ण तथा छः वर्णों पर यति होता है;

जैसे-
।ऽऽ ऽऽ ऽ ।।। ।।ऽ ऽ ।।। ऽ
“अनूठी आभा से, सरस सुषमा से सुरस से।
बना जो देती थी, वह गुणमयी भू विपिन को।।
निराले फूलों की, विविध दल वाली अनुपम।
जड़ी-बूटी हो बहु फलवती थी विलसती।।”

7. वंशस्थ
इस छन्द के प्रत्येक चरण में एक जगण (।ऽ।), एक तगण (ऽ1), एक जगण (।ऽ1) और एक रगण (ऽ) के क्रम में 12 वर्ण होते हैं;

जैसे-
। ऽ।ऽ ऽ ।।ऽ ऽ। ऽ
“न कालिमा है मिटती कपाल की।
न बाप को है पड़ती कुमारिक।
प्रतीति होती यह थी विलोक के,
तपोमयी सी तनया तमारि की।।”

8. द्रुतविलम्बित
इस छन्द के प्रत्येक चरण में एक नगण (।।।), दो भगण (ऽ।।, ऽ।।) और एक रगण (ऽ।ऽ) के क्रम से 12 वर्ण होते हैं, चार-चार वर्णों पर यति होती है;

जैसे-
।। ऽ ।।ऽ। ।ऽ। ऽ
“दिवस का अवसान समीप था
गगन था कुछ लोहित हो चला।
तरुशिखा पर थी अब राजती,
कमलनी कुल वल्लभ की प्रभा।।”

9. मत्तगयन्द (मालती)
इस छन्द के प्रत्येक चरण में सात भगण (ऽ।।, ऽ।।, ऽ।।, ऽ।।, ऽ।।, ऽ।।, ऽ।।) और अन्त में दो गुरु (ऽ) के क्रम से 23 वर्ण होते हैं;

जैसे-
ऽ। ।ऽ। ।ऽ। ।ऽ। ।ऽ। ऽ। ।ऽ।। ऽऽ
“सेस महेश गनेस सुरेश, दिनेसहु जाहि निरन्तर गावें।
नारद से सुक व्यास रटैं, पचि हारे तऊ पुनि पार न पावें।।”

10. सुन्दरी सवैया
इस छन्द के प्रत्येक चरण में आठ सगण (।।ऽ, ।।ऽ, ।।ऽ, ।।ऽ, ।।ऽ, ।।ऽ, ।।ऽ, ।।ऽ) और अन्त में एक गुरु (ऽ) मिलाकर 25 वर्ण होते हैं;

जैसे-
।। ऽ।। ऽ।। ऽ। ।ऽ।। ऽ। ।ऽ। ।ऽऽ
“पद कोमल स्यामल गौर कलेवर राजन कोटि मनोज लजाए।
कर वान सरासन सीस जटासरसीरुह लोचन सोन सहाए।
जिन देखे रखी सतभायहु तै, तुलसी तिन तो मह फेरि न पाए।
यहि मारग आज किसोर वधू, वैसी समेत सुभाई सिधाए।।”

मात्रिक छन्द

यह छन्द मात्रा की गणना पर आधृत रहता है, इसलिए इसका नामक मात्रिक छन्द है। जिन छन्दों में मात्राओं की समानता के नियम का पालन किया जाता है किन्तु वर्णों की समानता पर ध्यान नहीं दिया जाता, उन्हें मात्रिक छन्द कहा जाता है। मात्रिक छन्दों का विवेचन इस प्रकार है-

1. चौपाई
यह सममात्रिक छन्द है, इसमें चार चरण होते हैं। इसके प्रत्येक चरण में 16 मात्राएँ होती हैं। चरण के अन्त में दो गुरु होते हैं;
जैसे-
ऽ।। ।। ।। ।।। ।।ऽ ।।। ।ऽ। ।।। ।।ऽऽ = 16 मात्राएँ – “बंदउँ गुरु पद पदुम परागा, सुरुचि सुवास सरस अनुरागा। अमिय मूरिमय चूरन चारू, समन सकल भवरुज परिवारु।।”

2. रोला (काव्यछन्द)
यह चार चरण वाला मात्रिक छन्द है। इसके प्रत्येक चरण में 24 मात्राएँ होती हैं तथा । व 13 मात्राओं पर ‘यति’ होती है। इसके चारों चरणों की ग्यारहवीं मात्रा लघु रहने पर, इसे काव्यछन्द भी कहते हैं;

जैसे-
ऽ ऽऽ ।। ।।। ।ऽ ऽ ।ऽ ।।। ऽ = 24 मात्राएँ
हे दबा यह नियम, सृष्टि में सदा अटल है।
रह सकता है वही, सुरक्षित जिसमें बल है।।
निर्बल का है नहीं, जगत् में कहीं ठिकाना।
रक्षा साधक उसे, प्राप्त हो चाहे नाना।।

3. हरिगीतिका
यह चार चरण वाला सममात्रिक छन्द है। इसके प्रत्येक चरण में 28 मात्राएँ होती हैं, अन्त में लघु और गुरु होता है तथा 16 व 12 मात्राओं पर यति होती है;
जैसे-
।। ऽ। ऽ।। ।।। ऽ।। ।।। ऽ।। ऽ।ऽ = 28 मात्राएँ।
“मन जाहि राँचेउ मिलहि सोवर सहज सुन्दर साँवरो।
करुना निधान सुजान सीलु सनेह जानत राव।।
इहि भाँति गौरि असीस सुनि सिय सहित हिय हरषित अली।
तुलसी भवानिहिं पूजि पुनि पुनि मुदित मन मन्दिर चली।।”

अथवा

‘हरिगीतिका’ शब्द चार बार लिखने से उक्त छन्द का एक चरण बन जाता है;

जैसे-
।।ऽ।ऽ ।।ऽ।ऽ ।।ऽ।ऽ ।।ऽ।ऽ = 28 मात्राएँ

हरिगीतिका, हरिगीतिका, हरिगीतिका, हरिगीतिका

4. दोहा
यह अर्द्धसममात्रिक छन्द है। इसमें 24 मात्राएँ होती हैं। इसके विषम चरण (प्रथम व तृतीय) में 13-13 तथा सम चरण (द्वितीय व चतुर्थ) में 11-11 मात्राएँ होती हैं;

जैसे-
ऽऽ ।। ऽऽ ।ऽ ऽऽ ऽ।। ऽ। = 24 मात्राएँ
“मेरी भव बाधा हरौ, राधा नागरि सोय।
जा तन की झाँईं परे, स्याम हरित दुति होय।।”

5. सोरठा
यह भी अर्द्धसम मात्रिक छन्द है। यह दोहा का विलोम है, इसके प्रथम व तृतीय चरण में ।-। और द्वितीय व चतुर्थ चरण में 13-13 मात्राएँ होती हैं;

जैसे-
।। ऽ।। ऽ ऽ। ऽ। ।ऽऽ ।।।ऽ = 24
मात्राएँ “सुनि केवट के बैन, प्रेम लपेटे अटपटे।
बिहँसे करुना ऐन, चितइ जानकी लखन तन।।”

6. उल्लाला
इसके प्रथम और तृतीय चरण में ।ऽ-।ऽ मात्राएँ होती हैं तथा द्वितीय और चतुर्थ चरण में 13-13 मात्राएँ होती हैं;

जैसे-
हे शरणदायिनी देवि तू, करती सबका त्राण है।
हे मातृभूमि! संतान हम, तू जननी, तू प्राण है।

7. छप्पय
यह छः चरण वाला विषम मात्रिक छन्द है। इसके प्रथम चार चरण रोला के तथा । अन्तिम दो चरण उल्लाला के होते हैं;

जैसे-
“नीलाम्बर परिधान हरित पट पर सुन्दर है।
सूर्य-चन्द्र युग मुकुट मेखला रत्नाकर है।
नदियाँ प्रेम-प्रवाह, फूल तारा मण्डल है।
बन्दी जन खगवृन्द शेष फन सिंहासन है।
करते अभिषेक पयोद हैं बलिहारी इस वेष की।
हे मातृभूमि तू सत्य ही, सगुण मूर्ति सर्वेश की।।”

8. बरवै
बरवै के प्रथम और तृतीय चरण में 12 तथा द्वितीय और चतुर्थ चरण में 7 मात्राएँ होती हैं, इस प्रकार इसकी प्रत्येक पंक्ति में 19 मात्राएँ होती हैं;

जैसे-
।।ऽ ऽ। ऽ। ।। ऽ। । ऽ। = 19
तुलसी राम नाम सम मीत न आन।
जो पहुँचाव रामपुर तनु अवसान।।

9. गीतिका
गीतिका में 26 मात्राएँ होती हैं, 14-12 पर यति होती है। चरण के अन्त में लघु-गुरु होना आवश्यक है;

जैसे-
ऽ। ऽऽ 5 ।ऽऽ ।ऽ |।ऽ ।ऽ = 26 मात्राएँ
साधु-भक्तों में सुयोगी, संयमी बढ़ने लगे।
सभ्यता की सीढ़ियों पै, सूरमा चढ़ने लगे।।
वेद-मन्त्रों को विवेकी, प्रेम से पढ़ने लगे।
वंचकों की छातियों में शूल-से गड़ने लगे।

10. वीर (आल्हा)
वीर छन्द के प्रत्येक चरण में 16, ।ऽ पर यति देकर 31 मात्राएँ होती हैं तथा अन्त में । गुरु-लघु होना आवश्यक है;

जैसे-
।। ।। ऽ ऽऽ। ।।। ।। ऽ। ।ऽ ऽ ऽ।। ऽ। = 31 मात्राएँ
“हिमगिरि के उत्तुंग शिखर पर, बैठ शिला की शीतल छाँह।
एक पुरुष भीगे नयनों से, देख रहा था प्रलय-प्रवाह।।”

11. कुण्डलिया
यह छ: चरण वाला विषम मात्रिक छन्द है। इसके प्रत्येक चरण में 24 मात्राएँ होती हैं। इसके प्रथम दो चरण दोहा और बाद के चार चरण रोला के होते हैं। ये दोनों छन्द कुण्डली के रूप में एक दूसरे से गुंथे रहते हैं, इसीलिए इसे कुण्डलिया छन्द कहते हैं;

जैसे-
“पहले दो दोहा रहैं, रोला अन्तिम चार।
रहें जहाँ चौबीस कला, कुण्डलिया का सार।
कुण्डलिया का सार, चरण छः जहाँ बिराजे।
दोहा अन्तिम पाद, सरोला आदिहि छाजे।
पर सबही के अन्त शब्द वह ही दुहराले।
दोहा का प्रारम्भ, हुआ हो जिससे पहले।”

Chhand in Hindi Worksheet Exercise with Answers PDF

प्रश्न 1.
हिन्दी साहित्य में छन्दशास्त्र की दृष्टि से पहली कृति कौन है?
(a) छन्दमाला (b) छन्दसार (c) छन्दोर्णव पिंगल (d) छन्दविचार
उत्तर :
(a) छन्दमाला

प्रश्न 2.
छन्द पढ़ते समय आने वाले विराम को कहते हैं
(a) गति (b) यति (c) तुक (d) गण
उत्तर :
(b) यति

प्रश्न 3.
गणों की सही संख्या है।
(a) छ: (b) आठ (c) दस (d) बारह
उत्तर :
(b) आठ

प्रश्न 4.
दोहा और सोरठा किस प्रकार के छन्द हैं?
(a) समवर्णिक (b) सममात्रिक (c) अर्द्धसममात्रिक (d) विषम मात्रिक
उत्तर :
(c) अर्द्धसममात्रिक

प्रश्न 5.
दोहा और रोला के संयोग से बनने वाला छन्द है (पी.जी.टी. हिन्दी परीक्षा 20।)
(a) पीयूष वर्ष (b) तोटक (c) छप्पय (d) कुण्डलिया
उत्तर :
(d) कुण्डलिया

प्रश्न 6.
बन्दउँ गुरुपद कंज कृपा सिन्धु नररूप हरि।
महामोहतम पुंज, जासु वचन रविकर निकर।।
उपरोक्त पंक्तियों में छन्द है (टी.जी.टी. परीक्षा 2011)
(a) सोरठा (b) दोहा (c) बरवै (d) रोला
उत्तर :
(a) सोरठा

प्रश्न 7.
“कहते हुए यों उत्तरा के नेत्र जल से भर गए। हिम के कणों से पूर्ण मानो हो गए पंकज नए।। उपरोक्त पंक्तियों में छन्द है।
(a) बरवै (b) चौपाई (c) गीतिका (d) सोरठा
उत्तर :
(c) गीतिका

प्रश्न 8.
सेस महेश गणेश सुरेश, दिनेसह जाहि निरन्तर गावें।
नारद से सुक व्यास रटैं, पचि हारे तऊ पुनि पार न पावै।।
उपरोक्त पंक्तियों में छन्द है
(a) मालती (b) वंशस्थ (c) शिखरिणी (d) मन्दाक्रान्ता
उत्तर :
(a) मालती

प्रश्न 9.
शिल्पगत आधार पर दोहे का उल्टा छन्द है (उपनिरीक्षक सीधी भर्ती परीक्षा 2014)
(a) रोला (b) चौपाई (c) सोरठा (d) बरवै
उत्तर :
(c) सोरठा

प्रश्न 10.
चौपाई के प्रत्येक चरण में मात्राएँ होती हैं। (उपनिरीक्षक सीधी भर्ती परीक्षा 2014)
(a) 11
(c) 13
(d) 16
(b) 13
उत्तर :
(d) 16

Vachan in Hindi – वचन परिभाषा, भेद और उदाहरण – हिन्दी व्याकरण

vachan-in-hindi

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वचन – Vachan Ki Paribhasha, Bhed aur Udaharan (Examples) – Hindi Grammar

  • परिभाषा,
  • पहचान
  • विशिष्ट बातें
  • अभ्यास

पदों के जिस रूप से उसके एक या अनेक होने का बोध हो, ‘वचन’ कहलाता है। नीचे लिखे वाक्यों को देखें-

  1. पौधा पर्यावरण को शुद्ध बनाए रखता है।
  2. पौधे पर्यावरण को शुद्ध बनाए रखते हैं।
  3. शेर मांसाहारी नहीं होता है।
  4. शेर मांसाहारी नहीं होते।

उपर्युक्त उदाहरणों में पौधा, पौधे और शेर एक एवं अनेक संख्याओं का बोध करा रहे हैं।
(1) और (3) वाक्यों के ‘पौधा’ और ‘शेर’ अपनी एक-एक संख्या का बोध कराने के कारण एकवचन रूप के हुए और (2) एवं (4) वाक्यों के पौधे तथा ‘शेर’ अपनी अनेक संख्याओं का बोध कराने के कारण बहुवचन रूप के हुए।

इस तरह वचन के दो प्रकार हुए-
एकवचन और बहुवचन।

एकवचन से संज्ञापदों की एक संख्या का और बहुवचन से उसकी अनेक संख्याओं (एकाधिक संख्या) का बोध होता है।
अब नीचे लिखे वाक्यों को ध्यानपूर्वक देखें

  1. लड़का बहुत प्रतिभाशाली था।
  2. लड़के बहुत प्रतिभाशाली थे।
  3. लड़के ने स्कूल जाने की जिद की।
  4. लड़कों ने खेलने का समय माँगा।
  5. अमावस की रात अँधेरी होती है।
  6. चाँदनी रातें बड़ी खूबसूरत होती हैं।
  7. रातों को आराम के लिए बनाया गया है।
  8. लड़की भी अंतरिक्ष जाने लगी।
  9. लड़कियाँ लड़कों से कम नहीं हैं।
  10. लड़कियों को कमजोर मत समझो।
  11. माली एक फूल लाया।
  12. मालिन के हाथ में अनेक फूल थे।
  13. उसने फूलों की माला बनाई।

उपर्युक्त उदाहरणों में हम देखते हैं :

  1. लड़का, लड़के ने, रात, लड़की, फूल आदि एक-एक संख्या का बोध करा रहे हैं।
    ((1), (3), (5), (8) और (11) वाक्यों में)
  2. लड़के, लड़कों ने, रातें, रातों को, लड़कियाँ, लड़कियों को, फूल और फूलों की अनेक
    संख्याओं का बोध करा रहे हैं। ((2), (4), (6), (9), (10), (12) और (13) वाक्यों में)
  3. ‘लड़का’ एकवचन ‘लड़के’ और ‘लड़कों (ने)’ बहुवचन
    ‘रात’ एकवचन ‘रातें’ और ‘रातों’ (को)’ बहुवचन
    ‘लड़की’ एकवचन ‘लड़कियाँ’ और ‘लड़कियों’ (को)’ बहुवचन
    ‘फूल’ एकवचन ‘फूल’ और ‘फूलों’ (की)’ बहुवचन
  4. बहुवचन के दो रूप सामने हैं–लड़के और लड़कों।
    लड़कियाँ और लड़कियों को
    रात और रातों को
    फूल और फूलों की
  5. ‘लड़का’ एकवचन और ‘लड़के ने’ भी एकवचन है।
  6. ‘फूल’ दोनों वचनों में समान है। .
    अब इन्हीं बातों को विस्तार से समझें :

एकवचन से बहुवचन बनाने की दो विधियाँ हैं :
1. निर्विभक्तिक रूप : जब बिना कारक-चिह्न लगाए विभिन्न प्रत्ययों के योग से बहुवचन रूप बनाए जाएँ। जैसे-

  • लड़का + ए = लड़के
  • लड़की + याँ = लड़कियाँ
  • रात + एँ = रातें आदि।

2. सविभक्तिक रूप : जब कारक चिह्न के कारण ओं/यों प्रत्यय लगाकर बहुवचन रूप बनाया जाया। जैसे-

  • लड़का + ओं = लड़कों
  • लड़की + यों = लड़कियों
  • हाथी + यों = हाथियों
  • रात + ओं = रातों आदि।

नोट : सविभक्तिक रूप बनाने के लिए स्त्री० पुं० सभी संज्ञाओं में ओं/यों प्रत्यय लगाया जाता है। इस रूप के साथ किसी-न-किसी कारक का चिह्न अवश्य आता है। संज्ञा का यह रूप सिर्फ वाक्यों में देखा जाता है।

एकवचन से बहुवचन बनाने के नियम :
1. आकारात पुँ. संज्ञा में ‘आ’ की जगह ‘ए’ की मात्रा लगाकर :
उदाहरण–
लड़का : लड़के कुत्ता : कुत्ते
[इसी तरह निम्न संज्ञाओं के बहुवचन रूप बनाएँ]
घोड़ा, गधा, पंखा, पहिया, कपड़ा, छाता, रास्ता, बच्चा, तारा, कमरा, आईना, भैंसा, बकरा, बछड़ा

2. अन्य पुं. संज्ञाओं के दोनों वचनों में समान रूप होते हैं।
उदाहरण–

  • फूल : फूल
  • हाथी : हाथी आदि।

3. अकारान्त या आकारान्त स्त्री. संज्ञाओं में ‘एँ जोड़कर :
उदाहरण-

  • रात : रातें माता : माताएँ

(इनके रूप आप स्वयं लिखें) :
बहन, गाय, बात, सड़क, आदत, पुस्तक, किताब, कलम, मूंछ, नाक, बोतल, बाँह, टाँग, पीठ, भैंस, भेड़, शाखा, कथा, लता, कामना, खबर, वार्ता, शिक्षिका, अध्यापिका, कक्षा, सभा, पाठशाला, राह.

4. इकारात में ‘याँ’ और ईकारान्त स्त्री. संज्ञा में ‘ई’ को ‘इ’ करके ‘याँ’ जोड़कर :
उदाहरण–

  • तिथि : तिथियाँ __ लड़की : लड़कियाँ आदि।

(इनके रूप आप स्वयं लिखें) :
रीति, नारी, नीति, गाड़ी, साड़ी, धोती, नाली, अंगूठी, खिड़की, कुर्सी, दरी, छड़ी, घड़ी, हड्डी, नाड़ी, सवारी, बच्ची, नदी

5. उकारान्त स्त्री. संज्ञा में ‘एँ’ एवं ऊकारान्त में ‘ऊ’ को ‘उ’ कर ‘एँ’ लगाकर :
उदाहरण-

  • वस्तु : वस्तुएँ
  • बहू : बहुएँ
  • वधू : वधुएँ आदि

6. ‘या’ अन्तवाली स्त्रीलिंग संज्ञाओं में ‘या’ के ऊपर चन्द्रबिंदु लगाकर
उदाहरण–
चिड़िया-चिड़ियाँ (इनके रूप आप स्वयं लिखें)
डिबिया, चिड़िया, गुड़िया, बुढ़िया, मचिया, बचिया,

7. गण, वृन्द, लोग, सब, जन आदि लगाकर भी कुछ संज्ञाएँ बहुवचन बनाई जाती हैं।
उदाहरण–

  • बालक : बालकगण
  • शिक्षक : शिक्षकगण
  • अध्यापक : अध्यापकवृन्द
  • बंधु : बंधुवर्ग
  • ब्राह्मण : ब्राह्मणलोग
  • बच्चा : बच्चालोग/बच्चेलोग
  • नारी : नारीवृन्द
  • गुरु : गुरुजन
  • नेता : नेतालोग
  • भक्त : भक्तगण
  • सज्जन : सज्जनवृन्द
  • भाई : भाईलोग

8. इनमें ओं/यों लगाकर कोष्ठक में किसी कारक के चिह्न लिखें :
उदाहरण–
लडका : लड़कों (ने)
लड़की : लड़कियों (में)
बच्चा, कथा, शिक्षक, चिड़िया, घास, मानव, जानवर, पौधा, कमरा, कहानी, रात, कविता, पुस्तक, बाल, बोतल, नाक, कलम, दाँत

वचन संबंधी कुछ विशेष बातें

1. निम्नलिखित संज्ञाओं का प्रयोग बहुवचन में ही होता है :
ये मेरे हस्ताक्षर हैं।
गोली लगते ही उस आदमखोर बाघ के प्राण उड़ गए।
आपके दर्शन से मैं बड़ा लाभान्वित हुआ।
भूकंप आने की खबर सुन मेरे तो होश ही उड़ गए।
आजकल के लोग बड़े स्वार्थी हुआ करते हैं।
उसकी अवस्था देख मेरे आँसू निकल पड़े।
आपके होठ/ओठ तो बड़े आकर्षक हैं।
इन दिनों वस्तुओं के दाम काफी बढ़ गए हैं।
मैं आपके अक्षत को पूजार्थ ले जा रहा हूँ।
अभी से ही मेरे बाल झड़ने लगे हैं।
उस बीभत्स दृश्य को देखकर मेरे रोंगटे खड़े हो गए।
सलमा आगा को देखकर उनके रोम पुलकित हो गए।
वायु-प्रदूषण के कारण मेरे नेत्र लाल हो गए हैं।
उनके तेवर बदलते जा रहे हैं, पता नहीं, बात क्या है।

2. कुछ संज्ञाओं का प्रयोग, जिनमें द्रव्यवाचक संज्ञाएँ भी शामिल हैं, प्रायः एकवचन में ही होता है :
आर्थिक मंदी से आम जनता बहुत परेशान है।
इस वर्ष भी बिहार में बहुत कम वर्षा हुई है।
कहीं पानी से लोग डूबते हैं तो कहीं पानी खरीदा जाता है।
सोना बहुत महँगा हो गया है।
चाँदी भी सस्ती कहाँ है।
लोहा मजबूत तो होता ही है।
आनेवाला सूरज लाल नजर आता है।
ईश्वर तेरा भला करे।
मानवों के कुकृत्य देख पृथ्वी रो पड़ी और आकाश फटना चाहता है।
रामराज्य में भी प्रजा दुखी थी।
बच्चों का खेल बड़ा निराला होता है।

3. आदरणीय व्यक्तियों का प्रयोग बहुवचन में होता है यानी उनके लिए बहुवचन क्रिया लगाई जाती हैं।
जैसे-
मेरे पिताजी आए हैं।
गुरुजी ऐसा कहते हैं कि पेड़-पौधे हमारे मित्र हैं।

माताजी देवघर जाना चाहती थीं; किन्तु मैंने उनकी अवस्था देख उन्हें मना कर दिया।

4. नाना, दादा, चाचा, पिता, युवा, योद्धा आदि का बहुवचन रूप वही होता है।
5. द्रव्यवाचक संज्ञाओं के प्रकार (भेद) रहने पर उनका प्रयोग बहुवचन में होता है। जैसे-
धनबाद में आज भी बहुत प्रकार के कोयले पाए जाते हैं।
लोहे कई प्रकार के होते हैं।

6. प्रत्येक, हर एक आदि का प्रयोग सदा एकवचन में होता है। जैसे-
प्रत्येक व्यक्ति ऐसा ही कहता है।
आज हर कोई मानसिक रूप से बीमार दिखता है।
इस भाग-दौड़ की दुनिया में हरएक परेशान है।

7. ‘अनेक’ स्वयं बहुवचन है (यह ‘एक’ का बहुवचन है) इसलिए अनेकों का प्रयोग वर्जित है। जैसे–
मजदूरों के अनेक काम हैं।

नोट : कविता आदि में मात्रा घटने की स्थिति में अनेकों का प्रयोग भी देखा जाता है। जैसे
पहर दो पहर क्या
अनेकों पहर तक
उसी में रही मैं। (बसंती हवा)

8. यदि आकारान्त पुं. संज्ञा के बाद किसी कारक का चिह्न आए तो वहाँ एकवचन अर्थ में भी वह संज्ञा आकार की एकार हो जाती है।
उदाहरण–
अमिताभ के बेटे की शादी ऐश्वर्या राय से हुई।

यहाँ ‘बेटा’ आकारान्त पुं. संज्ञा है। इसके आगे संबंध कारक का चिह्न ‘की’ रहने के कारण ‘बेटा’ शब्द ‘बेटे’ हो गया। ‘बेटे’ होने से भी यह एकवचन ही रहा, बहुवचन नहीं।

निम्नलिखित वाक्यों में प्रयुक्त संज्ञाओं का रूप बदलकर वाक्य शुद्ध करें-

  1. इस छोटे-से काँटा ने बहुत परेशान कर दिया है।
  2. इस अंडा का आकार उस अंडा से बड़ा नहीं है।
  3. घर में सब कुछ है; बस एक ताला की कमी है।
  4. इस पंखा ने जान बचा ली है; वरना आज इस गर्मी में उबल गए होते।
  5. एक धब्बा ने पूरी धोती ही खराब कर दी है।
  6. आज हमलोग किसी ढाबा पर खाना खाने जाएँगे।
  7. विदाई के समय टीका लगाने का रिवाज घटता जा रहा है।
  8. उन चिट्ठियों को मेरे पता पर भेज दीजिए।
  9. शगुन के समय शामियाना में आग लग जाने से सब गुड़ गोबर हो गया।
  10. मैं इस मामला को सदन में उठाऊँगा।
  11. मैंने जब तुम्हें इशारा में पूरी बात समझा दी थी, फिर सबों के सामने तुमने क्यों पूछा।
  12. शाबाश दोस्त ! क्या पता की बात कही है।
  13. तुम्हारा इन्तजार मैं घंटा भर से कर रहा हूँ।
  14. इस धुन में तबला पर जाकिर साहब थे।
  15. तुम तो बिल्कुल कछुआ की चाल चलते हो।
  16. इस सिलसिला में और बहुत सारी बातें हुई होंगी।
  17. तुमने अक्ल तो पाई है गाधा की और बातें करते हो महात्मा विदुर-जैसी।
  18. यह लड़की किसी अच्छे घराना की मालूम पड़ती है।
  19. मेरे बड़ा लड़का ने बताया है कि आप कल शाम में ही आ गए थे।
  20. नीला-रंग के कोट में कुछ रुपये हैं, ले लो।

9. कारक-चिह्न रहने पर पुँ० संज्ञाओं के पूर्ववर्ती आकारान्त विशेषण तथा क्रियाविशेषण का रूप एकारान्त हो जाता है।
उदाहरण–

  • मेरा छोटा भाई ने आपकी चर्चा की थी।
  • मेरे छोटे भाई ने आपकी चर्चा की थी।

नीचे लिखे वाक्यों में दिए गए विशेषणों तथा क्रियाविशेषणों में आवश्यक परिवर्तन कर वाक्य शुद्ध करें-

  1. ऐसा काम के लिए उनके पास जाना उचित नहीं लगता।
  2. मुझे आपने दो काम दिए थे, उनमें से मैंने आपका पुराना काम तो कर दिया; परन्तु नयावाला काम में कुछ समय लगेगा।
  3. बहुत सारे देशों में काला-गोरा का अन्तर आज भी देखने को मिलता है।
  4. तुम-जैसा अवारा लड़के से मुझे कोई सहानुभूति नहीं है।
  5. उसका बड़ा लड़का का दिमाग खराब हो गया है।
  6. बुरा से बुरा लोग भी कभी-कभी अच्छा काम कर जाते हैं।
  7. सामना के मकान में किसी अच्छा घराना की लड़की रहती है।
  8. प्रणव का पहला भाषण में जो बात थी वह बजट में दिखाई नहीं पड़ी।
  9. आपका दिमाग में जो संदेह है उसे निकाल दीजिए।
  10. तुमने अपना पुराना नौकर को क्यों नहीं भेजा ?
  11. आपको ऐसा कामों में हाथ डालना ही नहीं चाहिए।
  12. आप जैसा सोच रहे हैं, वे लोग वैसा आदमी नहीं हैं।
  13. न जाने ये लोग कैसा कैसा धंधे करते हैं।
  14. जितना में मिलता हो, उतना में ही ले जाओ।
  15. इस निबंध में कुल कितना शब्द हैं ?
  16. मैं इस समय इतना रुपयों का भुगतान नहीं कर सकूँगा।
  17. उनके खेतों में अंडों जैसा आलू उपजते हैं।

Vachan in Hindi Worksheet Exercise with Answers PDF

A. रेखांकित पदों का बहुवचन में बदलकर अन्य आवश्यक परिवर्तन भी करें :
1. लोग आजीवन टटू की तरह जुते रहते हैं।
2. उनके गुरु की गुरुता देख ली मैंने।
3. शत्रु को कभी छोटा मत समझो।
4. इन दिनों वह अनेक बीमारी से जूझ रहा है।
5. परमाणु से ही सृष्टि की रचना हुई है।
6. अणु को परमाणु में तोड़ा गया।
7. आँसू में पानी ही नहीं आग भी होती है।
8. उस क्षेत्र में आतंकवादी का बोलवाला है।
9. अश्रु में पत्थर को भी पिघलाने की ताकत होती है।
10. वे मुझे उल्लू की तरह ताका करते हैं।
11. बच्चों को घुघरू से बड़ा लगाव होता है।