ISC Hindi Question Paper 2013 Solved for Class 12

ISC Hindi Previous Year Question Paper 2013 Solved for Class 12

Section-A

Question 1.
Write a composition in Hindi in approximately 400 words on any ONE of the topics given below :- [20]

निम्नलिखित विषयों में से किसी एक विषय पर लगभग 400 शब्दों में हिन्दी में निबन्ध लिखिये :
(a) विज्ञान की चमत्कारिक देन ‘कम्प्यूटर’ आज के युग में अति आवश्यक है। इस विषय पर अपने विचार व्यक्त करें।
(b) समाज सेवा सच्ची मानव सेवा।
(c) शिक्षा का व्यवसायीकरण ही शिक्षा के स्तर में गिरावट का कारण है पक्ष या विपक्ष में अपने विचार लिखिए।
(d) किसी पर्वतीय स्थल की यात्रा का वर्णन कीजिए जो आपके जीवन की अविस्मरणीय यात्रा बन गई हो।
(e) “जिसने अनुशासन में रहना सीख लिया उसने जीवन का सबसे बड़ा खजाना पा लिया।” विवेचन कीजिए।
(f) निम्नलिखित विषयों में से किसी एक विषय पर मौलिक कहानी लिखिए.
(i) अस्पताल में बहुत भीड़ देखकर मन परेशान हो गया।
(ii) एक कहानी जिसका अन्तिम वाक्य होगा “इसलिए कहते हैं नैतिक पतन से देश का पतन होता है।”
Answer:
(a)

“विज्ञान की चमत्कारिक देन ‘कम्प्यूटर’
आज के युग की आवश्यकता”

आज के युग को विज्ञान के चमत्कारों का युग कहा जाता है। यह सच भी है कि सुबह से लेकर रात तक हम लोग जितनी भी वस्तुएँ प्रयोग में लाते हैं प्रायः वे सभी विज्ञान की ही देन हैं। मानव आदिकाल से ही अपनी कुशाग्र बुद्धि का परिचय हमें नित नवीन आविष्कारों को जन्म देकर देता रहा है। इस दिशा में विज्ञान व वैज्ञानिकों ने मानव जीवन में एक अद्भुत क्रान्ति ला दी है। विज्ञान की ही एक नई चमत्कारिक देन है कम्प्यूटर।।

कम्प्यूटर का प्रयोग गत दस-बारह वर्षों से अत्यधिक तीव्रता से बढ़ता जा रहा है। जनसामान्य के हितार्थ एवं तीव्र आर्थिक समृद्धि के लिए कम्प्यूटर का अधिकाधिक प्रयोग आवश्यक है। वास्तव में जिस कम्प्यूटर का प्रयोग शिक्षा के क्षेत्र में दस-बारह वर्ष पूर्व किया गया था वही आज कम्प्यूटर शिक्षा का एक आवश्यक अंग बन गया आज कम्प्यूटर के कारण उद्योग, शिक्षा, प्रशासन, कृषि विज्ञान एवं तकनीकी आदि सभी क्षेत्रों में व्यापक परिवर्तन हुए हैं। हमारे प्रधानमन्त्री मोदी जी का प्रत्येक कार्य कम्प्यूटर द्वारा कराने का सपना आज साकार दिखाई दे रहा है।

कम्प्यूटर का आविष्कार एवं भूमिका- कम्प्यूटर के जनक अंग्रेज गणितज्ञ चार्ल्स बेबेज को स्वीकारा जाता है। उन्होंने ही गणित व खगोल विज्ञान सम्बन्धी सूक्ष्म सारणी तैयार करने हेतु एक महान गणक यन्त्र की योजना बनायी, किन्तु इसके असफल हो जाने पर अमेरिकी वैज्ञानिक डॉ. बेन्नेवर बुश ने 1930 में यान्त्रिक कल-पुर्जी का एक यन्त्र बनाया, जिसने ही औद्योगिक कम्प्यूटर को जन्म दिया। वही आधुनिक इलैक्ट्रोनिक कम्प्यूटर के जनक कहे जाते हैं। दूसरे विश्वयुद्ध के समय पहली बार विद्युतचालित कम्प्यूटर का निर्माण गणना करने के लिए हुआ था। वर्तमान में छोटे-बड़े सभी उद्योगों, तकनीकी व्यवसायों, प्रशासनिक कार्यालयों, वैज्ञानिक संस्थाओं में कम्प्यूटर का प्रयोग बढ़ता जा रहा है। इसने अपनी उपयोगिता ही नहीं दर्शायी है बल्कि सूचना प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में क्रान्ति उत्पन्न कर दी है।

कम्प्यूटर के क्षेत्र- आज कम्प्यूटर का क्षेत्र न केवल अत्यन्त व्यापक हो गया है बल्कि इसने अक्षर, शब्द, आकृति व तार्किक कथनों को भी ग्रहण कर विभिन्न व्यवसायों के लिए एक सरल व्यवहार प्रणाली की रचना की है।

कम्प्यूटर वर्तमान में सूचना प्रसारण एवं नियन्त्रण का शक्तिशाली साधन बन गया है। इससे उपग्रहों के अन्तरिक्ष में संचरण, उनका सम्पर्क व नियंत्रण, बड़े-बड़े उद्योगों में मशीनों के संचालन आदि के जटिल कार्यों को आसान बना दिया है।

कम्प्यूटर द्वारा बैंकों के कार्य-व्यवहार, हिसाब-किताब सरल बन सके हैं। यह न केवल गणना के लिए उपयोगी है अपितु भवनों, कारों, मोटरों, रेलों, वायुयानों तक के प्रारूप तैयार करने में सार्थक एवं समर्थ है। वास्तव में इसने हमारी हर मुश्किल आसान बना दी है। इससे विकास की गति कई गुना बढ़ गई है। यह मनुष्य के मस्तिष्क से भी द्रुत गति से कार्य करता है। आज हमें कूँची लेकर बैठने व कैनवास पर चित्र उकेरने की आवश्यकता नहीं क्योंकि कम्प्यूटर हमें एक नियोजित प्रोग्राम के अनुसार प्रिंट की कुंजी दबाते ही प्रिंटर द्वारा कागज पर चित्र छाप कर दे देता है।

अनुसंधान के क्षेत्र में इससे बड़ा क्रान्तिकारी परिवर्तन नहीं आया है। बच्चों के मनोरंजन और खेलों के कारण यह उनके आकर्षण का केन्द्र है। चिकित्सा के क्षेत्र में यह मानव हितार्थ कार्यों में संलग्न है। रेलवे स्टेशन, होटल, मॉल, बाजार सभी स्थानों पर कम्प्यूटर अपनी पहचान बना चुका है। सामान्य ज्ञान का यह भण्डार है। परीक्षा-परिणामों की गणना, योग, गुणा, भाग, समाचार पत्र, पाठ्य पुस्तकों का प्रकाशन आदि सभी कार्य आज कम्प्यूटर पर आश्रित हो गए हैं। इससे पल-भर में हमारे सभी कार्य पूर्ण हो जाते अतः समय की माँग व हमारी आवश्यकताओं ने हमें पूर्णत: कम्प्यूटर पर निर्भर बना दिया है। कम्प्यूटर का अधिक से अधिक प्रयोग करके हम अपने देश की प्रगति में वृद्धि कर सकते हैं। विज्ञान की चमत्कारिक देन ‘कम्प्यूटर’ आज के युग में अति आवश्यक है।

(b)

समाज सेवा–सच्ची मानव सेवा।

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। समाज में वह एक-दूसरे के साथ हिल-मिल कर रहता है तथा एक-दूसरे के सुख-दु:ख में । सहयोगी बनता है। मानव-समाज के सुसंचालन के लिए मानव-हृदय में मानव के प्रति सेवा भावना का होना अति आवश्यक है।

समाज सेवा की भावना ही सच्ची मानव सेवा स्वीकारी गई है। वास्तव में मानवता को सबसे बड़ा धर्म माना गया है। कवि मैथिलीशरण गुप्त ने कहा है-‘वही मनुष्य है, जो मनुष्य के लिए मरे।’ यह प्रकृति का भी सहज स्वाभाविक नियम है। प्रकृति के सभी अंग किसी-न-किसी रूप में दूसरों की भलाई में तत्पर रहते हैं फिर मनुष्य क्यों नहीं? यदि मनुष्य अपने ही स्वार्थ की चिन्ता करे तो वह पशु की श्रेणी में आ जाता है, स्वार्थी कहलाता है।

सामाजिक प्राणी होने के नाते, दूसरों के सुख-दुःख की चिन्ता करना, उनका हित सोचना, सहयोग देना मानव का परम कर्तव्य एवं समाज सेवा होती है। मानव सेवा के पथ पर चलने हेतु हमें स्वीकारना होगा कि हमारा शरीर परोपकार के लिए है। परोपकार के भावों से ही सच्ची मानव सेवा एवं मानवता के आदर्श को पाया जा सकता है।

वास्तव में जब प्रकृति के जीव-जन्तु निःस्वार्थ भाव से दूसरों की भलाई में तत्पर रहते हैं तब विवेकशील प्राणी होते हुए भी मनुष्य यदि मानव जाति की सेवा न कर सका तो उसका जीवन कलंक स्वरूप ही है। मनुष्य होते हुए भी मनुष्य कहलाने का उसे कोई अधिकार नहीं। जिसमें समस्त मानव समुदाय के लिए सहानुभूति व प्रेम का भाव रहता है। वही सच्ची समाज सेवा, मानव सेवा के रूप में अपना सकता है।

यदि किसी व्यक्ति के मन में मनुष्य सेवा की भावना नहीं है, अपने पीड़ित भाई को देखकर जिसके हृदय में कसक नहीं उठती। उसकी सहायता के लिए वह तत्पर नहीं होता तो उसका मन्दिर में जाकर पूजा और अर्चना करना ढोंग और पाखण्ड है। प्रसिद्ध नीतिकार सादी ने कहा है-“अगर तू एक आदमी की तकलीफ को दूर करता है तो वह कहीं अधिक अच्छा काम है, बजाय तू हज को जाये और मार्ग की हर एक मन्जिल पर सौ बार नमाज पढ़ता जाए।”

सामाजिक प्राणी होने के नाते मनुष्य का यह कर्तव्य भी है कि वह दूसरों के सुख-दुःख की चिन्ता करे, क्योंकि उसका सुख-दुःख दूसरों के सुख-दुःख के साथ जुड़ा हुआ है। सच ही कहा गया है

“वह शरीर क्या जिससे जग का कोई भी उपकार न हो।
वृथा जन्म उस नर का जिसके मन में सेवा भाव न हो।”

यों जीने को तो सभी मनुष्य जीते हैं। केवल अपने लिए जीना न तो मनुष्यता का लक्षण है और न सच्चे अर्थों में जीवित रहने का लक्षण। महानता के आदर्श को लेकर जीने वाले बुद्ध, जैन तीर्थंकर, महात्मा गाँधी, मदर टेरेसा आदि लोग इसीलिए महान बने क्योंकि वह केवल अपने लिए नहीं बल्कि सम्पूर्ण मानवता के लिए जिये-मरे।

उनके शब्दों में ‘मानवता की सेवा ही ईश्वर की सच्ची प्रार्थना थी।’ समाज सेवा का बीड़ा उठाकर, समाज द्वारा परित्यक्त, रुग्ण व्यक्तियों के कल्याण एवं परित्राण में ही उन्हें जीवन का सन्तोष एवं सच्ची पूजा दिखाई दी।

उनके आदर्शों, विचारों एवं कर्म से निराश निर्धनों को न केवल आशामयी भविष्य की प्राप्ति हुई बल्कि जीवनेच्छा खो चुके कुष्ठ रोगियों को ममतामयी छाँव मिल सकी।

समाज सेवा के इसी भाव के परिणामतः सच्ची मानव सेवा का आदर्श रूप हमें दिखाई देता है। वास्तव में मदर टेरेसा ने मानवता की सेवा करके न केवल समाज के प्रति दया, प्रेम, सेवा भाव दिखाया बल्कि हमें मानव सेवा के महत्व से अवगत करा दिया। हमें स्वीकारना ही होगा कि सच्ची मानव सेवा ही समाज सेवा है व हमारा परम धर्म भी।

(c)

“शिक्षा का व्यवसायीकरण ही शिक्षा के

स्तर में गिरावट का कारण है।” शिक्षा का वास्तविक अर्थ कुछ पुस्तकें पढ़कर परीक्षाएँ पास कर लेना ही नहीं हुआ करता। शिक्षा का वास्तविक अर्थ है- अनेक विषयों में ज्ञान प्राप्ति अर्थात् शिक्षा का तात्पर्य ज्ञान से ही है।

शिक्षा व्यक्ति को विविध विषयों का ज्ञान करा कर उसके मनमस्तिष्क, इच्छा और कार्य-शक्तियों का विकास तो करती ही है, उसके छिपे व सोये गुणों को उजागर कर एक नया आत्मविश्वास भी प्रदान करती है जिससे सभी प्रकार की सफलताओं की सम्भावनाएँ लेकर व्यक्ति प्रगति-पथ पर निरन्तर आगे बढ़ सकता है।

इसे दुखद स्थिति ही कहा जा सकता है कि आज शिक्षा व्यवसाय का रूप लेती जा रही है। शिक्षा को एक प्रकार से रोजगार या व्यवसाय से सीधा जोड़ा जाने लगा है।

पक्ष में तर्क-आज शिक्षा का व्यवसायीकरण ही शिक्षा के स्तर में गिरावट का कारण है क्योंकि आज प्रत्येक व्यक्ति जिस किसी भी तरह से शिक्षा के नाम पर कुछ डिप्लोमा-डिग्रियाँ प्राप्त करके अपने आपको व्यवसाय या रोजगार का अधिकारी मानने लगता है। यही वह मानसिकता है जिसने आज न केवल शिक्षा के उद्देश्य को नष्ट कर दिया है, बल्कि उसे एक प्रकार का व्यवसाय ही बना डाला है।

शिक्षा के इसी व्यावसायिक रूप ने शिक्षा की महत्ता घटा दी है। आज की शिक्षा निश्चय ही अक्षर ज्ञान या अधिक से अधिक किताबी विषयों का ज्ञान कराने से अधिक कुछ नहीं सिखा पाती। वह अपनी सामयिक उपयोगिता खो चुकी है। वह अपने साथ-साथ राष्ट्र और मानवता का कल्याण करने में सहायक नहीं है। इसके साथ ही ‘गुरु’ का आदर्श अध्यापक ट्यूशन पढ़ने वाले छात्रों को प्रश्न-पत्र से अवगत करा देते हैं या वही प्रश्न पूछते हैं, जो उन्होंने पढ़ाये होते हैं। इससे ऐसे ट्यूशन वाले छात्रों का परीक्षा परिणाम तो अच्छा ही आता है पर वास्तविक शिक्षा या ज्ञान के नाम पर विद्यार्थी अपने को कोराका-कोरा ही पाता है। शिक्षा का यह व्यवसायीकरण ही आज सबसे बड़ी बिडम्बना है।

विपक्ष में तर्क-शिक्षा का व्यवसायीकरण शिक्षा के स्तर में गिरावट का कारण नहीं है। आज शिक्षा प्राप्त कर प्रत्येक व्यक्ति किसी-न-किसी रूप में व्यवसाय या रोजगार पाने की चाह रखता है। भारत जैसे अविकसित, निर्धन और बेकारों से सम्पन्न देश में शिक्षा के प्रति दष्टिकोण व्यवसायोन्मखी हो जाना बहत अधिक अस्वाभाविक या असंगत भी नहीं लगता। जिस देश में साधारण जनता रोटी, कपड़ा, मकान जैसी प्राथमिक और आवश्यक जरूरतें भी पूरी नहीं कर पाती। कदम-कदम पर अभावों में जीवन काटने को मजबूर होना पड़ता है। महँगाई की निरन्तर वृद्धि एवं उपभोक्ता वस्तुओं के दाम आकाश को छू रहे हों, वहाँ का खाता-पीता व्यक्ति भी केवल शिक्षा के लिए शिक्षा की बात नहीं सोच सकता। शिक्षा का व्यवसायीकरण होना स्वाभाविक ही लगता है। इसके साथ ही शिक्षा के व्यवसायीकरण हेतु अधिकांशतः हम अध्यापक को ही दोषी मान लेते हैं।

हम शायद ये भूल जाते हैं कि इन्जीनियर या डॉक्टर तैयार करने वाला अध्यापक वर्ग भी अपने बच्चों का भविष्य उज्ज्वल बनाना चाहता है। समय के साथ ताल से ताल मिलाकर चलने में वह सीमाओं का थोड़ा बहुत उल्लंघन कर बैठता था जो नहीं करना चाहिए।

वास्तव में कोई भी शिक्षा समय की माँग एवं आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए ही सफल-सार्थक कही जा सकती है। आज समय की मांग भी यही है कि शिक्षा और व्यवसाय में परस्पर सीधा सम्बन्ध स्थापित किया जाए। तकनीकी, इंजीनियरी आदि शिक्षा देने के लिए सरकार ने कुछ अलग केन्द्र स्थापित किए हैं पर एक तो ऐसे केन्द्रों की संख्या बहुत कम है, दूसरे स्कूलों-कॉलेजों में दी जाने वाली शिक्षा के साथ इस प्रकार के शिक्षण-प्रशिक्षण का कोई तालमेल नहीं बैठता। अतः वर्तमान परिप्रेक्ष्य में हमें समूची शिक्षा-प्रणाली के ढाँचे में आमूल परिवर्तन लाकर प्रारम्भिक शिक्षा से ही व्यवसायोन्मुख प्रणाली लागू की जाए तभी आवश्यकता पूर्ति में शिक्षा का सार्थक सहयोग प्राप्त हो सकेगा।

(d)

“जीवन की अविस्मरणीय पर्वतीय यात्रा”

पहाड़ों की यात्रा का अपना-अलग ही महत्व एवं आनन्द हुआ करता है। साधारणतः लोग प्रकृति सौन्दर्य दर्शन के लिए पहाड़ों की यात्रा किया करते हैं, जबकि कुछ लोग मनोरंजन एवं आनन्दानुभूति के लिए पहाड़ों पर जाया करते हैं। इसके साथ ही धनाढ्य वर्ग गर्मी से राहत पाने के लिए दो-एक महीने ठण्डे स्थान पर, पहाड़ों पर बिताया करते हैं। कभी-कभी लोग बर्फ गिरने (Snowfall) के अवलोकन हेतु भी भयानक सर्दी में टिकट कटाकर पहाड़ों पर जाते हैं। अपनी-अपनी भावना के अनुसार मनुष्य आचरण करता है। यही मानव-स्वभाव की सत्यता है।

पिछले वर्ष मुझे भी पर्वतीय स्थल की यात्रा का अवसर प्राप्त हुआ। इस यात्रा पर जाने के लिए मेरे दो उद्देश्य थे। पहला तो मैं पहाड़ों के प्राकृतिक सौन्दर्य को निहारना चाहता था। दूसरा यह जानना चाहता था कि वहाँ के लोगों का जीवन कैसे व्यतीत होता होगा? इसलिए मैंने मसूरी की यात्रा की योजना बनाई। मेरे दो-तीन अन्य मित्र भी मेरे साथ चलने को तैयार हो गए।

कॉलेज की छुट्टियाँ होने के कारण घर से भी हमें अनुमति मिल गई। निश्चित तिथि पर हम बस द्वारा मसूरी की यात्रा के लिए चल पड़े। शहर की भीड़-भाड़ को धीरे-धीरे पार कर हम मसूरी की यात्रा पर थे। हमारी बस देहरादून की राह पर मसूरी जाने के लिए भाग रही थी। देहरादून की वादी में प्रवेश करने से पहले तक का रास्ता आम बस-मार्गों के समान ही रहा। कहीं सूखे मैदान, कहीं हरेभरे खेत, कहीं कुछ वृक्षों के साये और कहीं एकदम खाली सड़कें।

कुछ आगे जाने पर सड़क के आस-पास उगे वृक्षों ने अचानक घना होना शुरू कर दिया। वातावरण में उमस सी अनुभूति होने लगी। धीरे-धीरे घने वृक्षों के जंगल और भी घने होते गए। हमारी बस भी पहाड़ों पर चढ़ती हुई दिखाई दी। गोलाकार चढ़ाई, ठण्डी हवा के तीखे झोंके, जंगली फूलों की महक, दूर से दिखने वाली बर्फ जमी सफेद पहाड़ी चोटियाँ, लगता था हम प्रकृति के बड़े ही सुन्दर और रंगीन लोक में आ पधारे हैं।

जी चाहता था कि बस से उतरकर इन घाटियों में दूर तक चला जाऊँ। घूमते बादलों के टुकड़ों को पकड़ लूँ। इस प्रकार प्रकृति की आँख-मिचौली के दृश्य देखते हुए हम मसूरी पहुँचे।

बस के रुकने तक मेरा मन तरह-तरह की कल्पना की डोरियों में उलझा रहा, परन्तु मेरी भावना को उस समय गहरी ठेस लगी जब हम जैसा एक मनुष्य फटे-पुराने कपड़ों में ठिठुरते, पाँव में जूते के स्थान पर कुछ रस्सियों को लपेटे, पीठ पर रस्सी और एक चौखटासा उठाए आकर कहने लगा-“कुली साहब। आगे बढ़कर उसने हमारा सामान उठाना शुरू भी कर दिया।

पता नहीं किस भावना से जब मैंने उसे रोकना चाहा तो पास खड़े एक आदमी ने कहा- उठाने दीजिए साहब, आपके वश में बैग लेकर चढ़ पाना सम्भव नहीं। यही लोग सामान उठाकर व भागकर चढ़ाई चढ़ सकते हैं। बाद में मैंने अनुभव किया कि दयनीयता में जीवन गुजारते, पहाड़ों के ये पुत्र ही इतनी शक्ति रखते हैं।

उस दिन विश्राम करके सुबह ही हम केम्पटी फॉल, फोती घाट, नेहरू पार्क आदि दर्शनीय स्थल देखने में व्यस्त हो गए। प्रकृति इतनी विराट, सुन्दर एवं आकर्षक है इसका मुझे पहली बार अनुभव हुआ। साथ ही यह भी महसूस किया कि प्रकृति उदारता से भरी है। वह मुक्तभाव से हमें कितना कुछ प्रदान करती है।

अगले दो दिन मैंने वहाँ के साधारण लोगों का रहन-सहन, व उनकी स्थिति को देखने में लगाए। वहाँ के लोग जो आम दिखते हैं, उन्हें बड़ा ही कठिन जीवन व्यतीत करना पड़ता है।

इस पर्वतीय स्थल की मेरी यात्रा खट्टे-मीठे दोनों प्रकार के अनुभव दे गई। प्रकृति की वह अनोखी घटाएँ अविस्मरणीय हैं। मेरे __ मन मस्तिष्क से इसकी छाप कभी नहीं मिट सकती।

(e)

“जिसने अनुशासन में रहना सीख लिया उसने
जीवन का सबसे बड़ा खजाना पा लिया।”

‘अनुशासन’ शब्द ‘अनु’ और ‘शासन’ इन दो शब्दों के मेल से बना है। ‘अनु’ उपसर्ग है, जिसका अर्थ है- साथ, शासन अर्थात् नियम या विधान। अतः अनुशासन का तात्पर्य है कि हम जिस स्थान पर रहे हों, देशकाल के अनुसार वहाँ के जो नियम हैं, आचारव्यवहार हैं, उनका उचित ढंग से पालन करना।

अनुशासन में रहकर ही व्यक्ति सहज भाव से आगे बढ़ता हुआ अपने जीवन का लक्ष्य प्राप्त कर सकता है। मनुष्य को सामाजिक प्राणी इसी कारण ही कहा जाता है, क्योंकि वह प्रत्येक कार्य दूसरों का ध्यान रखकर अनुशासित ढंग से करता है। वास्तव में मनुष्यों का स्थान, समय और आवश्यकता को पहचान कर किया गया व्यवहार ही अनुशासन का रूप धारण कर लेता है।

शरीर को सुन्दर बनाने के लिए जिस प्रकार सन्तुलित भोजन आवश्यक है। उसी प्रकार जीवन और समाज को स्वस्थ, सुन्दर बनाने के लिए व्यक्ति का अनुशासित होना भी बहुत आवश्यक है; जैसेबासी, सड़ा-गला खाना, आवश्यकता या भूख से अधिक खाना अस्वस्थता एवं समस्याएँ प्रदान करता है, उसी प्रकार अनुशासनहीनता जीवन एवं समाज के स्वरूप को बिगाड़ देती है। हमें ऐसा कोई भी कार्य नहीं करना चाहिए जिसका समाज पर बुरा प्रभाव पड़े।

शिक्षा प्राप्त करने का अर्थ केवल किताबें पढ़कर परीक्षाएँ पास करना ही नहीं होता, बल्कि हर प्रकार से कुछ सीखना भी हुआ करता है। अपने गुरुजनों का आदर व उनके सद्भावों को अपनाना अपने सहपाठियों के साथ अपना व्यवहार ठीक रखना, सभी का सम्मान करना, जरूरत पर सबकी सहायता करना ही वास्तव में अनुशासन है।

अपने घर-परिवार के साथ रहते हुए, आस-पड़ोस के लोगों से आदर, सम्मान और नम्रता से पेश आना चाहिए। कोई भी ऐसा काम कभी भी नहीं करना चाहिए जिससे हमें या हमारे घर-परिवार को लज्जित होना पड़े। इस प्रकार स्पष्ट है कि जिसे अच्छा और उचित व्यवहार करना कहा जाता है, वास्तव में वही अनुशासन है।

हम देखते हैं कि सड़कों पर चलते हुए लोग दूसरों का ख्याल हैं। सड़कों, गलियों पर चलते हुए लोग जोर-जोर से चिल्लाते हुए या आपस में गाली-गलौच करते आते-जाते हैं। सार्वजनिक स्थानों या पार्कों में बैठकर जुआ खेलते हैं। इस प्रकार के सभी व्यवहार केवल अनुशासनहीनता ही नहीं, असभ्यता भी माने जाते हैं।

व्यक्ति अपने व्यवहार से ही पहचाना जाता है। जिस प्रकार अच्छे समाज और महान् राष्ट्रों की पहचान उसके अनुशासित नागरिकों से ही हुआ करती है। उसी प्रकार अनुशासन वह आईना है जिसमें सभ्य और सुसंस्कृत जातियों का प्रतिबिम्ब सरलता से देखा और परखा जा सकता है। यदि व्यक्ति मानवीय आदर्शों और अनुशासन का पालन करने वाला नहीं, तो उसकी सारी शिक्षा और वंश की उच्चता व्यर्थ होकर रह जाते हैं। अगर ऐसे लोगों की संख्या बढ़ने लगती है तो वह धर्म, जाति, देश और राष्ट्र सभी के नाम को डुबोने वाले साबित हुआ करते हैं। अनुशासन कठिन नियमों का पालन करना नहीं अपितु समय, स्थान एवं स्थिति के अनुसार उचित व्यवहार करना ही होता है। अतः अनुशासित देश और राष्ट्र ही सब प्रकार की प्रगति एवं विकास कर पाते हैं। “जिसने अनुशासन में रहना सीख लिया उसने जीवन का सबसे बड़ा खजाना पा लिया।”

(f) (i)

अस्पताल में बहुत भीड़ देखकर मन

परेशान हो गया। बात उन दिनों की है जब मेरे भाई-भाभी के यहाँ एक पुत्र का जन्म हुआ। मैं अपार खुशी से भर उठा कि हमारे घर में एक छोटा बच्चा आ गया है।

मैं दूसरे दिन उस बालक को देखने अपने पिताजी के साथ दिल्ली रवाना हो गया। आगरा से दिल्ली का सफर बड़ा सुहाना लग रहा था, क्योंकि मन की खुशी वातावरण को भी मोहक बना रही थी। मेरी भाभी अपने घर दिल्ली गई हुई थीं वहीं उन्हें पुत्ररत्न की प्राप्ति मुझे उन्हें देखने जब अस्पताल जाने का अवसर मिला तब तक मैं जीवन के सत्य से अनभिज्ञ-सा था। कितना दुख और दर्द छिपा है इंसान के जीवन में इसकी गहराई मुझे अस्पताल के अन्दर पहली बार महसूस हुई।

अस्पताल में आते-जाते लोग सभी दुख-दर्द से भरे थे। कोई . स्वयं परेशान था। किसी के साथ आए लोग परेशान थे। परेशानियाँ इतनी थीं कि खुशियों का अम्बार जो मेरे भीतर भरा था कहीं दब-सा गया था।

पिताजी ने मेरे साथ भाभी से मुलाकात की व मैंने छोटे से, कोमल बालक यानी अपने भतीजे से भी मुलाकात की। जो अपनी आँखें बन्द किए सो रहा था। पिताजी कुछ सामान लेने के लिए बाहर गए और मैं भी बाहर आकर खड़ा हो गया। खिड़की से नीचे देखने पर आते-जाते लोगों की भीड़ दिखाई दे रही थी। मन में एक अज्ञात प्रार्थना उमड़ी कि हे भगवान इन सभी की दुख-तकलीफों से इन्हें राहत प्रदान करना। मेरे अन्दर से शुभेच्छाएँ निकल रही थीं। सामान देकर पिताजी के आने पर मैं भाभी से विदा लेकर घर लौटने को चल पड़ा। सीढ़ियाँ उतरते समय लोगों की भीड़ का रेला इतनी जोर से आ जा रहा था कि समझ में नहीं आ रहा था कि क्या इतनी भीड़ कभी अस्पतालों में भी हो सकती है?

आज तक जनसंख्या वृद्धि का ये हाल मुझे रेलवे स्टेशन, बस स्टैण्ड पर ही देखने को मिला था। अस्पताल में इतनी भीड़ देखकर मन परेशान हो गया। लोगों के दु:ख-दर्द का आभास व कष्टों की अधिकता का यथार्थ अस्पताल में जाकर मुझे पहली बार महसूस हो सका।

अपनी खुशी का आभास था पर दूसरों के दुःखों से भी सहानुभूति का अहसास हो रहा था।

(ii)

“नैतिक पतन से देश का पतन होता है”

हमारे राजनेता हमारे समाज के अंग एवं हमारी राजनीतिक स्थिति के आधार माने गए हैं। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में देखें तो राजनीति दलदल के समान मानी जाने लगी है जिसमें प्रत्येक नेता फँसता चला जा रहा है। ऐसा नहीं है कि ईमानदार व्यक्ति या ईमानदारी प्रायः समाप्त हो गयी है। गाँव देहातों में तथा शहरों में भी प्रायः दोनों ही रूप हमें देखने को मिल जाते हैं। बड़े खेद का विषय था कि रामपुर गाँव का प्रधान सहकारी स्कूल के मिड-डे-मील की व्यवस्थाओं में घपले के आरोप में शामिल पाया गया। दीनानाथ अध्यापक का परम शिष्य रहा सूरजसिंह अब गाँव का प्रधान था। गुरु का ज्ञान व ईमानदारी को कलेजे से लगाए जीवन भर जिन आदर्शों पर वह चला आज उसके इस व्यवहार ने उसके पालन-पोषण एवं शिक्षाओं को कलंकित कर दिया था।

भरे गाँव में जब अधिकारियों की कार्यवाही हुई तो सभी शिकायतें जो सरजसिंह के विषय में की गईं थीं. सही पाई गईं। उसे ‘काटो तो खून नहीं’ ऐसा महसूस हो रहा था क्योंकि उसका पक्ष लेने वाले मास्टर दीनानाथ को अपने शिष्य पर पूर्ण विश्वास व आस्था थी।

परन्तु जब अधिकारियों ने मास्टर साहब के सामने उसकी कलई खोल दी और सारे प्रमाण दिखा दिए जिससे साबित हो सकता था कि उसने व्यवस्थाओं में हेर-फेर करके पैसा कमाया व जो सुविधाएँ सरकार के द्वारा बच्चों के लाभार्थ दी गईं उन्हें बिना बच्चों को प्रदान किए स्वयं ही स्वीकृति दे दी। उनका यह व्यवहार न केवल इन्सानियत के विरुद्ध था बल्कि इसलिए भी अपमानजनक था कि जिस पद पर समाज के हितार्थ वह आसीन है उसके विपरीत आचरण उन्होंने किया। गाँव के विकास व कल्याण हेतु उन्हें मुखिया बनाया गया, उस पद को भी उन्होंने कलंकित किया।

सारा गाँव अवाक् खड़ा उनको पुलिस के साथ जाते देख रहा था। आज ऐसा व्यवहार समाज में बहुत बढ़ गया है। शीघ्रातिशीघ्र धन कमाने का प्रलोभन इन्सान को कर्तव्यनिष्ठा से विचलित कर रहा है। ऐसे ही हमारे देश में अधिकांश नेता, अधिकारी, कर्मचारी व आम आदमी करते आ रहे हैं। वास्तव में हर व्यक्ति अपने देश का एक भाग है उसके क्रियाकलापों का प्रभाव देश पर ही पड़ता है। आम आदमी देश की ही शृंखला है। इसलिए कहते हैं नैतिक पतन से देश का पतन होता है।

Question 2.
Read the following passage and briefly answer the questions that follow :-
निम्नलिखित अवतरण को पढ़कर, अन्त में दिये गये प्रश्नों के संक्षिप्त उत्तर लिखिए :

महाभारत का युद्ध जारी था। भीष्म और द्रोणाचार्य का वध हो चुका था और सेनाध्यक्ष पद की बागडोर दुर्योधन ने कर्ण को सौंपी थी। उसके रणकौशल के सामने पाण्डव-सेना के छक्के छूटने लगे। स्वयं अर्जुन भी हतोत्साहित हो गया था, किन्तु कर्ण का दुर्भाग्य कहिए या परशुराम का श्राप, कर्ण के रथ का पहिया कीचड़ में फंस गया। यह देख कर्ण तत्काल रथ से कूदा और उसे निकालने की कोशिश करने लगा।

श्रीकृष्ण ने कर्ण की यह स्थिति देख अर्जुन को उस पर बाणवर्षा जारी करने का इशारा किया। अर्जुन ने उनके निर्देशों का पालन किया, जिससे कर्ण बाणों के आघात को सहन न कर सका। वह अर्जुन से बोला, “महाधनुर्धर, थोड़ी देर रुक जाओ। क्या तुम्हें दिखाई नहीं देता कि मेरा ध्यान रथ का पहिया निकालने में जुटा हुआ है? क्या तुम नहीं जानते कि जो योद्धा रथविहीन हो, जिसके शस्त्र नष्ट हो गये हों, या जो निहत्था हो, युद्ध रोकने की प्रार्थना कर रहा हो, ऐसे योद्धा पर धर्मयुद्ध के ज्ञाता और शूरवीर शस्त्र प्रहार नहीं करते? इसलिये महाबाहो! जब तक मैं इस पहिये को न निकाल लूँ, मुझ पर प्रहार न करो, क्योंकि यह धर्म के अनुकूल नहीं होगा।”

कर्ण द्वारा अर्जुन को दिया गया यह उपदेश श्रीकृष्ण को शूल की तरह चुभा। वे कर्ण से बोले, “बड़े आश्चर्य की बात है कि आज धर्म याद आ रहा है। सच है कि जब नीच मनुष्य विपत्ति में पड़ता है, तो उसे अपने कुकर्मों की याद तो नहीं आती, मगर दूसरों को धर्मोपदेश देने का विचार अवश्य आता है। उचित होता, तुमने अपने धूर्त कर्मों और पापों का विचार किया होता। हे महावीर कर्ण! जब दुर्योधन के साथ मिलकर तुमने पाण्डवों के लिए लाक्षागृह बनवाया, भीम को खत्म करने के इरादे से विष दिलवाया, तेरह वर्ष की अवधि समाप्त होने के बाद भी पाण्डवों को राज्य नहीं दिया, द्रौपदी का चीरहरण करवाया, निहत्थे अभिमन्यु को तुम्हारे समेत सात महारथियों ने मारा, तब तुम्हारा धर्मज्ञान कहाँ गया था? क्या तुम्हें तब धर्मपालन की विस्मृति हो गयी थी।”

कर्ण को इसका उत्तर देते न बना। वह अर्जुन की बाणवर्षा के सामने टिक न सका और धराशायी हो गया।

Questions :
(a) भीष्म और द्रोणाचार्य की मृत्यु के बाद दुर्योधन ने सेनाध्यक्ष की बागडोर किसे सौंपी और क्यों?
(b) युद्ध के मैदान में कर्ण के साथ क्या घटना घटित हुई? [4]
(c) लगातार बाणवर्षा के आघात को सहन न कर सकने पर कर्ण ने अर्जुन को रोकते हुए क्या कहा? [4]
(d) कर्ण की उपदेश भरी बातों को सुनकर श्रीकृष्ण ने क्या जवाब दिया?
(e) प्रस्तुत गद्यांश को पढ़कर आपको क्या शिक्षा मिलती है? समझाकर लिखिए। [4]
Answer:
(a) भीष्म और द्रोणाचार्य की मृत्यु के पश्चात् दुर्योधन ने कर्ण को अपना सेनाध्यक्ष बनाया क्योंकि वह एक शूरवीर योद्धा था। उसके रणकौशल के सामने पाण्डव सेना का टिक पाना असम्भव था। यहाँ तक कि अर्जुन भी कर्ण के सामने घबरा जाता था। कर्ण की वीरता पर दुर्योधन को विश्वास था।
(b) युद्ध के मैदान में दुर्भाग्यवश कर्ण के रथ का पहिया कीचड़ में धंस गया। कर्ण ने तत्काल रथ से उतर कर उसे निकालने की कोशिश की, परन्तु वह उसे निकालने में असमर्थ रहा। उधर श्रीकृष्ण ने मौके का फायदा उठाकर अर्जुन से कर्ण पर लगातार बाणवर्षा करने को कहा। अर्जुन ने भी कृष्ण का कहना मानते हुए लगातार कर्ण पर बाणवर्षा जारी रखी।
(c) लगातार बाणवर्षा के आघात को सहन न कर सकने पर कर्ण ने अर्जुन को रोकते हुए कहा- महाधनुर्धर तुम कुछ समय के लिए वार करना बन्द कर दो क्योंकि तुम देख रहे हो कि मैं अपने रथ का पहिया निकालने में व्यस्त हूँ और तुम युद्ध के नियम जानते हो कि युद्ध में यदि योद्धा रथविहीन हो या किसी योद्धा के ‘शस्त्र’ नष्ट हो गए हों या वह निहत्था हो और युद्ध को रोकने की प्रार्थना कर रहा हो तो ऐसे योद्धा पर धर्म युद्ध के ज्ञाता और वीर पुरुष वार नहीं करते। इसलिए जब तक मैं रथ का पहिया बाहर न निकाल लूँ तब तक तुम मुझ पर तीर मत चलाओ क्योंकि धर्म के अनुसार यह उचित नहीं होगा।
(d) कर्ण की उपदेश भरी बातों को सुनकर श्रीकृष्ण ने जवाब देते हुए कहा कि अब तुम्हें धर्म की बातें याद आ रही हैं जब तुम विपत्ति में पड़े हो, तब तुम्हारा धर्म कहाँ था जब तुमने दुर्योधन के साथ मिलकर लाक्षागृह बनवाया था। पाण्डवों को जिन्दा जलाने के लिए तथा भीम को विष देकर मारने का प्रयास किया। तेरह वर्ष समाप्त होने पर भी पाण्डवों का राज्य वापस नहीं किया। द्रौपदी का चीरहरण करवाया और इतना ही नहीं तुम्हारे समेत सात महारथियों ने मिलकर अकेले अभिमन्यु को घेरकर मार डाला तब तुम्हारा धर्मज्ञान कहाँ गया था। उस समय तुम्हें धर्मपालन की याद नहीं आई।
(e) प्रस्तुत गद्यांश को पढ़कर हमें यह शिक्षा मिलती है कि हमें हमेशा धर्मज्ञान अर्थात् नियमों को याद रखना चाहिए। विपत्ति के समय, स्वार्थवश नियमों या धर्म को याद करना नीचता है। वह इंसान नीच ही होता है जो बारी आने पर धर्म की बात करता है। दूसरों के मौके पर धर्म को याद करता है। घमण्ड में चूर रहकर दूसरों को नुकसान पहुंचाता है जैसा कि कर्ण का व्यवहार था।

Question 3.
(a) Correct the following sentences :
निम्नलिखित वाक्यों को शुद्ध करके लिखिए:
(i) गर्म गाय का दूध स्वास्थ्यवर्धक होता है।
(ii) कृपया मेरे पत्र पर ध्यान देने की कृपा करें।
(iii) प्रत्येक व्यक्तियों का यह कर्तव्य है।
(iv) बच्चा दूध को रो रहा है।
(v) मैंने उसे हजार रुपया दिया।

(b) Use the following idioms in sentences of your own to illustrate their meaning : [5]
निम्नलिखित मुहावरों का अर्थ स्पष्ट करने के लिए वाक्यों में प्रयोग कीजिए:
(i) खाक छानना।
(ii) घोड़े बेच कर सोना।
(ii) नाक में दम करना।
(iv) दिन फिरना।
(v) मीन मेख निकालना।
Answer:
(a) (i) गाय का गर्म दूध स्वास्थ्यवर्धक होता है।
(ii) कृपया मेरे पत्र पर ध्यान दें।
(iii) प्रत्येक व्यक्ति का यह कर्तव्य है।
(iv) बच्चा दूध के लिए रो रहा है।
(v) मैंने उसे हजार रुपये दिए।

(b) (i) बेरोजगारी के कारण लाखों नौजवान सड़कों की खाक छानते फिरते हैं।
(ii) परीक्षाएँ समाप्त होने पर विद्यार्थी घोड़े बेच कर सोते
(iii) अवकाशकाल में बच्चे अपनी माँ की नाक में दम कर देते हैं।
(iv) बेटे की नौकरी लगते ही वर्मा जी के दिन फिर गए।
(v) कविता को मीन मेख निकालने की आदत है।

Section B is not given due to change in present Syllabus.

ISC Class 12 Hindi Previous Year Question Papers

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